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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
कच्छी वीसा ओसवाल अंचलगच्छीय जैन कुटुम्ब में जन्मा हैं । स्तनपान करते करते वह जननीमुख से श्रवण कर नवकार मंत्र सीखा ।
"घोळां धावण केरी धाराए धाराए नीतर्यो नवकारनो रंग
हो राज ! मने लाग्यो जिनभक्तिनो रंग ।" शिशु-किशोरवय चर्या और पूर्व-परिचित श्रीमद्-वचनामृत प्रभाव : ___ "जिस मंत्र के प्रताप से केवल 29 ढाइ वर्ष की आयु में वह स्वप्न अवस्था में संसारकूप का उल्लंघन कर गया..... .... ४ वर्ष की आयु में उसे खुले नेत्र से प्रकाश प्रकाश दिखाई दिया .... ...... ९-१० वर्ष की आयु से वह पौषधोपवासव्रत पूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने लगा .... "संवत्सरिमां चालीस लोगस्सनो काउसग्ग मूळजी बोल्यां । बालयोगी साधु समा आ, निरखी लोको डोल्यां ॥" फिर आगे - "द्वादश वर्षे पठन कर्यां 'तां, राजप्रभुनां वचनो । वचनो सर्वे रह्यां सत्तामां, जागे अंतरमां भजनो ॥" ("गुरुदेवनी पूजा" : पुष्पाबाई स्वयंशक्ति : पृ. ४, ५)
"..... १२ वर्ष की आयु में उसे श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत ग्रंथ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । जिसे पढ़ने पर वह शिक्षा पूर्व-परिचित प्रतीत हुई । उसमें से "बहु पुण्य केरा पुंजथी .... निरखीने नवयौवना ..... क्षमापना पाठ" इत्यादि उसने सहसा कंठस्थ किए । "मैं कौन हूँ, कहाँ से हुआ ?" (हुं कोण छु, क्याथी थयो ?) यह गाथा उसकी जीभ पर खेलने लगी एवं “निरखीने नवयौवना" - इस शिक्षाबल से लघुवय में संपन्न सगाईवाली कन्या का विवाहपूर्व ही देह छूट जाने पर, दूसरी कन्या के साथ हो रहे सगाईसम्बन्ध को टालकर वह आत्मसमाधि मार्ग पर अग्रसर हो सका । ___"पूर्वकाल के जन्मान्तरों में परमकृपाळुदेव, श्री तीर्थंकर देव आदि अनेक महाज्ञानी सत्पुरुषों के महान उपकारों के नीचे यह देहधारी अनुग्रहबद्ध है। उनमें से दो सत्पुरुषों का उपकार उसे इस देह में बारंवार स्मृति में आया करता है - एक स्वलिंग संन्यस्त युगप्रधान श्रीमद् श्री जिनदत्तसूरिजी और दूसरे गृहलिंग संन्यस्त युगप्रधान श्रीमद् राजचंद्रजी । इन उभय ज्ञातपुत्रों की असीम कृपा इस देह पर वारंवार अनुभव करती हुई यह आत्मा, धीमी गति फिर भी सुदृढ़रुप से आध्यात्मिक उन्नति श्रेणी पर अग्रसर हो रही है।"
(इस ग्रंथ के प्रकरण-४ में लिखित स्वयं की "आत्मकथा-आश्रमकथा")
३. सहजानंद सुधा : श्रीमती चन्दनाबेन काराणी : सं. परिचय
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