Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 136
________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • ८६ गुरुदेव और विमलाताई का मिलन अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्ध समाज सेविका व उच्च कोटि की योगिनी विमलाताई परमकृपाळु देव के साहित्य की गहन अध्येता थीं। उन्होंने "Selected Works of Shrimad Rajchandra". अंग्रेजी ग्रंथश्रेणि की आयोजना प्रोफेसर प्रतापभाई टोलिया के साथ बनाई थी। ईडर की श्रीमद्जी की सिद्धशिला साधना भूमि की स्पर्शना करने की उनकी दीर्घकालीन इच्छा थी । श्रीमद्जी के जन्म शताब्दी महोत्सव के समय दिसम्बर 1967 में विसनगर में महिला कॉलेज की छात्राओं का शिविर आयोजित किया गया था । वहाँ से वे प्रतापभाई और उनके सितार को साग्रह ईडर साथ ले आईं । गुरुदेव व माताजी के साथ वहाँ उनका अप्रत्याशित व प्रेरक समागम हुआ । प्रथम रात गुरुदेव की भक्ति की मस्ती जमी प्रतापभाई के सितारवादन व गान के साथ । दूसरे दिन लघुता मूर्ति गुरुदेवने विमलाताई का प्रवचन सुनना चाहा । परन्तु ताई ने साग्रह गुरुदेव का प्रवचन विनयपर्वक सुना । वे इतनी प्रभावित हुई कि वहाँ पर सभी को एवं बाद में अपने मित्रों को गुरुदेव गाथा सुनाती रहीं । (सौजन्य : श्री पेराजमल जैन : 'अद्भुत योगी', पृ. 102) ८७ भक्ति रस में निमग्न होना प्रोफेसर प्रतापभाई टोलिया उच्च कोटि के लेखक व संगीतज्ञ हैं । वे गांधीजी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में अपने विद्यागुरु और जैन दर्शन के प्रकांड पण्डित प्रज्ञाचक्षु डो. सुखलालजी के साथ कार्यरत थे । पण्डितजी के हृदय में इस बात का बड़ा मूल्य था कि गुरुदेव सहजानंदघनजी श्रीमद्जी का कार्य समर्पित भाव से कर रहे हैं । ईडर में प्रथम परिचय होने के बाद प्रतापभाई अपने बड़े भाई और आश्रम अध्यक्ष श्री चन्दुभाई टोलिया और श्री छोटुभाई के साथ बेंगलुरु से 1969 में शरद पूर्णिमा के अवसर पर पहली बार हम्पी आए थे । उन्होंने सितारवादन के साथ 'अपूर्व अवसर' एकतान होकर गाया जिसमें वे स्वयं रस निमग्न हो गए । तीन प्रवचन उनके ही प्रश्नोत्तर रूप में सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए । गुरुदेव की प्रेरणा व पण्डितजी की सम्मति से 1970 में गुजरात विद्यापीठ से त्याग-पत्र देकर वे गुरुदेव के चरणों में समर्पित हो गए । उनके सिद्धांतों का प्रचार व प्रसार साहित्य, संगीत व ध्यान शिबिरों के माध्यम से देश-विदेश में कर वे जिन शासन की महत्वपूर्ण सेवा कर रहे हैं। (सौजन्य : श्री पेराजमल जैन : 'अद्भुत योगी', पृ. 103) (116)

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