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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
सम्मतियाँ-II : साहित्य समालोचना प्रस्तुत पुस्तक में दक्षिण के एतिहासिक कर्णाटक प्रदेश के तीर्थ रत्नकूट हम्पी-विजय नगर पर निर्मित श्रीमद् राजचंद्र आश्रम-एक साधना स्थल का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया है । हेमकूट के अनेक खंडहर जिनालयों के मीलों तक फैले प्रदेश में यह तीर्थ धाम साधना हेतु सर्व जन सुलभ है । मानव के लिए ही नहीं, तिर्यञ्चों पशुओं के लिए भी । एक श्वान आत्माराम की चर्चा एक चमत्कारिक रूप में भी ली जा सकती है। श्रीमद् राजचन्द्र की प्रतिमा के सामने बैठकर भक्ति में विभोर साधक अपनी साधना में लीन होते हैं । प्रा. प्रतापकुमारजी ने बड़े ही साहित्यिक ढंग से इस छोटी पुस्तक में इस पुनीत स्थान-साधना स्थल का वर्णन किया है जो पठनीय है और साधना हेतु इच्छुक लोगों के लिए प्रेरणादायक है । अतः लेखक धन्यवादाह है । पुस्तक की छपाई सफाई सुन्दर है।
"वीर-वाणी", भंवरलाल न्यायतीर्थ (३, सितम्बर, १९८६)
सम्मतियाँ-III बेंगलोर में 1971 में स्थापित 'वर्धमान भारती' संस्था ध्यान, संगीत, ज्ञान और अध्यात्म के द्वारा जैनदर्शन के प्रचार-प्रसार हेतु कार्यरत है। प्रो. प्रतापकुमार टोलिया और उनका परिवार उसमें प्रधान योगदान दे रहा है।
रामायण में वाली-सुग्रीव की 'किष्किन्धा' नगरी की प्राचीनता जहाँ स्थिर हुई मानी जाती है, उस कर्णाटक के एतिहासिक तीर्थ रत्नकूट हंपी में श्रीमद् राजचंद्र आश्रम नए ही साधनाधाम के रूप में आकार ले रहा है । विरान और खंडहरों जैसी हिंसक पशुओं से घिरी हुई इस भूमि पर 'भद्रमुनि' ने आकर उसे अहिंसा और तप से पवित्र बनाई । लेखक ने प्रकृति के पवित्र वायुमंडल में स्थित उस आश्रम की मुलाकात लेकर जिस निराले और दिव्य आनंद की अनुभूति की उसका रसप्रद वर्णन प्रस्तुत पुस्तिका में है। आश्रम के माताजी की अलौकिकता, खेंगारबापा का 'स्व' के हेतुलक्षी समर्पण, कूत्ता आत्माराम इत्यादि के विषय में पढ़ते हुए लगता है कि महावीर और तीर्थंकरों के समय की तपःप्रभा आज भी देखने को मिलती है वह अद्भुत बात मानी जाएगी । लेखक ने भावविभोर बनकर वहाँ कुछ पद गाए और अनन्य महा आनन्द पाया । जैन एवं जैनेतरों को भी मुलाकात लेने का आकर्षण उत्पन्न करे ऐसा इस स्थल विषयक मनोरम चित्र देखने को मिलता है।
"जनसत्ता" (27-2-1994) सम्मतियाँ-IV : आत्मदृष्टा माताजी दक्षिणापथ की साधनायात्रा में श्री धनदेवीजी एवं दक्षिण में आये हुए तीर्थों का तलस्पर्शी वर्णन लेखक ने किया है । उसे पढ़ते हुए कभी तो हम भी साथ ही यात्रा कर रहे हों ऐसा भास होता है । आत्मदृष्टा माताजी विषयक स्व. कु. पारुल टोलिया का लेख मनन करने योग्य है । आमुख डो. रामनिरंजन पांडेय ने लिखा है।
"जय जिनेन्द्र" : मुंबई समाचार (27-2-1994)
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