Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 119
________________ 2 निकट भूतकाल में कतिपय स्वतंत्र वैज्ञानिक हो गये, उनमें सन्त कबीर, सन्त आनन्दघन तथा सन्त श्रीमद् राजचन्द्र अपने अपने समय के अद्वितीय चैतन्य वैज्ञानिक मान्य करने योग्य हैं । इन तीनों सत्पुरुषों को कोई सम्प्रदायवाद इष्ट न था अतः उन्होंने तो किसी धर्म के सम्प्रदाय नहीं बनाये थे । केवल धर्म का मर्म प्राप्त कर के धर्म संशोधन के द्वारा धर्मसमन्वय साधा था और उसके प्रति परिचित व्यक्तियों को इशारा किया था । इनमें से सन्त आनन्दघनजी अणगार होने के कारण निर्जन वनों में, गिरि कन्दराओं में तथा स्मशानों में असंगदशा में विचरण करते रहे और वि.सं. 1730 में इस दुनिया से सदा के लिए अदृश्य हो गये । इस कारण से उनके पीछे उनका कोई अनुयायी वर्ग तैयार न हुआ । दिल और दिमाग को शान्तिदायक उनकी अनुभववाणी भी अल्प मात्रा में संशोधकों को प्राप्त हुई । परन्तु विषय गाम्भीर्य सा कठिन शब्द प्रयोग तथा अशुद्ध आलेख के कारण उस टकसाली ( अत्यन्त प्रभावोत्पादक) वाणी पर जैसा होना चाहिए ऐसा संशोधन नहीं हो सका हैं, जब कि सन्त कबीर तथा सन्त श्रीमद् राजचन्द्रजी के सम्बंध में स्थिति भिन्न है । वे आगार धर्म के माध्यम से अणगार धर्म का विकास करके चैतन्य विज्ञान को विकसित करते रहे संग में रह कर असंग की आराधना करते रहे, फलत: उनकी अनुभववाणी परिचित वर्ग में स्वीकृत हुई, प्रसरित होती रही और इसके परिणाम स्वरूप उनका अनुयायी वर्ग भी तैयार हुआ तथा उनकी अनुभववाणी पर संशोधन भी हुए और आज भी हो रहे हैं । • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा सर्वज्ञ भगवान श्री महावीर की केवलज्ञान श्रेणी जिस प्रकार तीसरी पाट पर लय हो गई, उसी प्रकार आत्मज्ञ सन्तों की आत्मज्ञान श्रेणी तीसरी पाट पर लय हो जाय तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं और इसी कारण से उनके बाद के साधकीय गच्छसमुदाय गच्छवाद-सम्प्रदायवाद में परिवर्तित हो जाय तो उसमें भी कोई आश्चर्य नहीं । इसी न्याय से सन्त कबीर तथा सन्त श्रीमद् राजचन्द्र के नाम से सम्प्रदायवाद आरम्भ हो जाय और धर्म के नाम पर गुटबन्दी (गच्छ, वाडाबन्धी ) शुरु हो गई हो तो उसमे कोई भी सुविचारक सच्चा चिन्तक उन महापुरुषों का दोष मान ही नहीं सकता । सन्त कबीर और सन्त श्रीमद् राजचन्द्र के साहित्य को तो वर्तमान समय में उपजाऊ - ऊर्वरा भूमि समान मान सकते हैं जब कि सन्त आनन्दघनजी रचित साहित्य मेरी दृष्टि में तो गोचर भूमिवत् प्रतीत होता है क्योंकि उनके साहित्य क्षेत्र में आज पर्यंत जितना भी काम हुआ है वह अपर्याप्त है । श्री अगरचन्दजी नाहटा द्वारा प्राप्त आनन्दघन साहित्य की प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ तथा आज तक मुद्रित तथा अनुवादित साहित्य का अन्वेषण तथा अनुशीलन करने पर मेरे हृदय पर जो प्रभाव पड़ा है वह मैने ऊपर दर्शाया है । गोचर भूमि को उर्वरा बनाना यह आज की दुनिया के लिए महान पुण्यकार्य गिना जा सकता है मानना चाहिए । यह कार्य कष्टसाध्य होने के कारण उस दिशा में कोई विरले ही दृष्टि डालें यह स्वाभाविक है । तथापि उन विरल व्यक्तियों की पंक्ति में सम्मिलित होना आप जैसे व्यक्ति के लिए कुछ कठिन नहीं है क्योंकि आपके पास तथा प्रकार का हृदय है, दिमाग है, कलम का कसब है तथा सरस्वती पुत्र सम पण्डित सुखलालजी की निश्रा है एवं हमारे समान लंगोटीवालों की भी मैत्री है.... तो फिर.... ? - (99)

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