Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 118
________________ (12) • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, हम्पी दिनांक : 14-12-1969 श्रीमद् राजचन्द्रजी तथा आनन्दघनजी विषयक संशोधन सद्गुणानुरागी सत्यसुधारस पिपासु सत्संग योग्य मुमुक्षु भाई प्रताप, आपका जिज्ञासा पूर्ण पत्र मिला । पी एच डी के लिए आपने जो विषय पसन्द किया है वह सचमुच अभिलषनीय है, अभिनन्दनीय है, क्योंकि उसके द्वारा परोपकार के साथ साथ स्व-उपकार भी अवश्यंभावी है । तद्विषयक मेरी सलाह इस प्रकार है: इस काल में इस समय इस क्षेत्र में जनसंख्या ( आबादी ) में वृद्धि के कारण मनुष्यों के लिए पेट भरना जिस प्रकार अत्यंत कठिन हो रहा है उसी प्रकार दिल और दिमाग की आवश्यकता की पूर्ति करना भी कष्टसाध्य हो गया है । पेट की भूख की पूर्ति के लिए जिस प्रकार अन्न उत्पादन तथा उत्पादक क्षेत्र के विस्तार की आवश्यकता है, उसी प्रकार दिल-दिमाग की भूख मिटाने हेतु आवश्यक मन- उत्पादन अर्थात् स्वाधीन मन तथा उसके अनुसन्धान हेतु उत्पादक क्षेत्र का विस्तार अर्थात् तथा प्रकार के साधनालय अनिवार्य हैं । आज अन्न और मन की समस्यापूर्ति हेतु हरित क्रान्ति की ध्वनि सुनाई देती है अवश्य, किन्तु दिखाई देता है सर्वत्र उभय प्रकार का अभाव । अन्नाभावजन्य भूखमरी सब को सर्वत्र खटकती हो यह स्वाभाविक है परन्तु आवश्यक मनोभावजन्य भूखमरी भी अब जनमानस को खटकने लगी है यह आनन्द का विषय है, क्योंकि इससे उस दिशा में कहीं कहीं विकास भी हुआ है। विश्व में भौतिक भूखमरी को शान्त करने हेतु भौतिक वैज्ञानिकों के द्वारा सार्वत्रिक प्रयत्न हो रहे हैं और उस दिशा में कहीं कहीं विकास भी हुआ है । (98) इस धरती की बंजर भूमि तथा समुद्र की अतल गहराई में एतद् अनुशीलन (Research) के साथ साथ मानव ने चन्द्रमा की धरती पर भी कदम रख दिया है लेकिन आध्यात्मिक श्रद्धापीपासा को शान्त करने हेतु जिन जिन अनेक चैतन्यवैज्ञानिकों ने सफल अन्वेषण कर धार्मिक संस्थाओं की स्थापना के द्वारा उस दिशा में प्रगति करके जगत के अन्तर और मन को जो राहत दी थी, वैसी राहत आधुनिक जगत को प्राप्त नहीं हो रही है यह सचमुच दुःखद हकीकत है, क्योंकि उन धर्मसंस्थाओं के अग्रणीजन चैतन्यविज्ञान का संशोधन छोड़कर अपनी समग्र शक्ति सम्प्रदायवाद में निरर्थक व्यय कर रहे हैं । धर्म के नाम पर अपने अपने गुट बांधकर - विस्तृत कर के एक-दूसरे के अनुयायियों को अपने-अपने गुटों के भेड़ बनाने मे जुड़े हुए हैं। क्योंकि क्वचित् कोई संशोधक स्वतंत्र रूप से चैतन्य विज्ञान का विकास साधने लगे तो उसे नास्तिक का इल्काब देकर अपने अपने गुटों के भेड़ों के दिल में उसकी ओर धिक्कार की भावना पैदा करते हैं यह सखेद आश्चर्य है । अतीतकालीन सर्वज्ञ किंवा आत्मज्ञ - चैतन्य विज्ञानिकों की श्रृंखलाबद्ध श्रेणी खंडित होने के पश्चात् अब तक ऐसा होता आया है और हो रहा है यह निर्विवाद सत्य है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168