Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 116
________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . (10) श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, हम्पी दिनांक : 20-11-1969 सद्गुणानुरागी सत्संगयोग्य सुविचारक भक्तहृदयी श्री प्रतापभाई, बेंगलोर ___कल आपकी अन्तरंग स्वरूपस्थ रहने की अभीप्सा को व्यक्त करनेवाला आपका पत्र मिला । पढ़कर यह आत्मा प्रमुदित हुई । उक्त अभीप्सा कार्यान्वित हो ऐसे हार्दिक आशीर्वाद । आपके हृदयमन्दिर में यदि परम कृपाळुदेव की प्रशमरसनिमग्न अमृतमयी मुद्रा प्रगट हुई हो तो उसे वहीं स्थिर करना उचित है । स्वयं के ही चैतन्य का तथा प्रकार से परिणमन यही साकार उपासना की श्रेणि का साध्यबिन्दु है और वही सत्यसुधा कहलाती है । हृदयमंदिर से सहस्रदल कमल में उसकी प्रतिष्ठा करके उसी में लक्ष्यवेधी बाण की भाँति चित्त वृत्ति प्रवाह का अनुसन्धान बनाये रखना यही पराभक्ति अथवा प्रेमलक्षणा भक्ति कहलाती है । उपरोक्त अनुसन्धान को ही शरण कहते हैं । शर अर्थात् तीर । शरणबल से स्मरणबल चिरस्थायी बनता है। कार्यकारणन्याय से शरण और स्मरण की अखण्डता सिद्ध होने पर आत्म प्रदेश में सर्वांग चैतन्य चांदनी फैल जाने से सर्वांग आत्मदर्शन और देहदर्शन भिन्न भिन्न रूप में दृष्टिगत होता है और आत्मा में परमात्मा की छबी विलीन हो जाती है। आत्मा-परमात्मा की यह अभेद दशा वही पराभक्ति की अन्तिम सीमा है । वही वास्तविक उपादान सापेक्ष सम्यग्दर्शन का स्वरूप है : "वह सत्यसुधा दरसावहिंगे, चतुरांगल व्है दृग से मिलहै रसदेव निरंजन को पीवहीं । गही जोग जुगो-जुग सों जीव हीं।" इस काव्य का तात्पर्यार्थ यही है । आँख और सहस्रदल कमल के बीच चार अंगुल का अंतर है । उस कमल की कर्णिका में चैतन्य की साकार मुद्रा वही सत्यसुधा है, यही स्वयं का उपादान है । जिसकी यह आकृति निर्मित हुई है वह बाह्य तत्त्व निमित्त कारण मात्र है । जिनकी आत्मा में जितने अंश में आत्मवैभव विकसित हुआ हो उतने अंश में साधकीय उपादान की कारणदशा विकसित होती है तथा कार्यान्वित होती है । अत एव जिनका निमित्त कारण सर्वथा विशुद्ध आत्मवैभवसम्पन्न हो उनका ही अवलम्बन लेना उचित है, उनमें ही परमात्म बुद्धि होनी चाहिए यह रहस्यार्थ है। ___ ऐसे भक्तात्मा का चिन्तन एवं आचरण विशुद्ध हो सकता है अत एव भक्ति, ज्ञान तथा योगसाधना का त्रिवेणी संगम साधा जाता है अतः ऐसे साधक के लिए भक्तिज्ञानशून्य केवल योगसाधना करना आवश्यक नहीं है । दृष्टि, विचार तथा आचारशुद्धि का नाम ही भक्ति, ज्ञान तथा योग है और वही अभेद परिणमन से 'सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' है । पराभक्ति के बिना ज्ञान और आचरण को विशुद्ध रखना दुर्लभ है, आ.र. इसी बाबत का द्रष्टान्त प्रस्तुत कर रहे हैं न ? अतः आप धन्य हैं, क्योंकि निज चैतन्य दर्पण में परम कृपाळु की छवि को आप अंकित कर सके हैं। (96)

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