Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 121
________________ श्री सहजानंदघन गुरूगाथा . __(1) सर्व प्रथम तो क्षमाप्रार्थना करूँगा कि आज तक पू. चन्दुभाई की सूचनानुसार सोमपुरा स से वहाँ के जिनालय का नकशा या सचन प्राप्त कर के भेज सका नहीं हूँ, परन्त यथासम्भव जल्दी ही यह भेजने का प्रयत्न कर रहा हूँ। (2) आपने गत पत्र में श्रीमद् राजचन्द्रजी तथा आनन्दघनजी जैसे परम ज्ञाता युगपुरुषों के विषय में मेरे संशोधन हेतु आशीर्वाद एवं दिशासूचन प्रदान किये उसके लिए अत्यन्त अनुग्रहित हूँ । तदनुसार प्रयत्नशील रह कर हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों जगत के लिए उन दोनों महापुरुषों के विषय में कुछ उपयोगी एवं उपादेय अभिव्यक्त करने की क्षमता मेरी लेखिनी को प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना उन दोनों प्रेरणादाता और अनुग्रहकर्ता महापुरुषों के प्रति एवं आए गुरुजनों के प्रति सादर, विनम्रभाव से इस प्रातः काल के समय प्रस्तुत कर रहा हूँ । (3) हाँ, मेरा यह कार्य अब यहाँ विद्यापीठ में रहकर या पूज्य पण्डित सुखलालजी के सान्निध्य में या विद्याजीवी के जीवन या वातावरण में नहीं होगा, तथापि उसका कोई अफसोस नहीं है । अन्तःकरण की गहराई में यह प्रतीति मुझे हो रही है कि अन्य व्यवसाय में जुड़ने के बाद भी परम कृपाळु देव की कृपा तथा अन्तःकरण की अभीप्सा मेरे हाथों को, हृदय को तथा मस्तिष्क को उसके योग्य बनायेंगी, और विशेष में शायद आपके उस शान्त, नीरव, साधना की भूमि के एकान्त वातावरण में ही वह कार्य सम्भव होगा । अर्थात् परम कृपाळु देव की प्रेरणा से, पू. चन्दुभाई की मेरे प्रति प्रेम-वात्सल्य-पूर्ण भावना के कारण, प.पू. सुखलालजी की प्रत्यक्ष-अत्यन्त आग्रहपूर्णा एवं आदेशात्मक सूचना के कारण एवं हृदय की गहराई में हो रही प्रतीति के कारण, इसी वर्ष ग्रीष्मावकाश आरम्भ होते ही विद्यापीठ का यहाँ का काम छोड़कर, बेंगलोर आकर पू. चन्दुभाई के साथ उनके काम में जुड़ने का निर्णय लिया है । इस निर्णय के लिए आपके एवं पू. माताजी के आशीर्वाद की प्रबल भावना है, जिससे जो अन्य विकल्प एवं प्रलोभन दृष्टिगत हो रहे हैं उनको नकार के दृढतापूर्वक एवं स्थिरतापूर्वक वहाँ आकर पद्मासन लगाकर बैठ सकू तथा साथ साथ मेरी उपस्थिति से चन्दुभाई के लिए बाधास्प न बन कर उनके कार्यों में सर्व प्रकार से सहायस्प बन सकूँ । इन दोनों कार्यो के लिए आपके आशीर्वाद की प्रबल इच्छा है । क्योंकि मेरे हृदय में यह वेदना है कि एक तो मेरे भ्रमण एवं विविध साधना के काल में एकाग्रतापूर्वक एक स्थान में कहीं भी स्थिर नहीं हो सका हूँ, और मेरी आन्तरिक शक्तियों को पूर्ण रूप से कार्यान्वित नहीं कर सका हूँ। जिसके फलस्वरुप हृदय अत्यन्त व्यथित रहता है साधना तथा व्यवहार के बीच समन्वय स्थापित करने के प्रयत्न के कारण । (इस व्यथा की कथा कभी फिर कहूँगा) दूसरा कारण यह भी है कि पूज्य चन्दुभाई का मुझ पर ही नहीं, हमारे पूरे परिवार पर असीम उपकार है जिसका ऋण पूर्णरूप से तो चुकाना कभी भी सम्भव नहीं है, परन्तु मेरे और मेरी पत्नी के बेंगलोर आने से उन सब के जीवन में आर्थिक-भौतिक रूप के साथ साथ अध्यात्म क्षेत्र में कुछ उपयोगी बन सकू, सब के बीच प्रेम, स्नेह और सौहार्द में वृद्धि कर सकूँ । ( मेरी पत्नी भी ऐसा कर (101)

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