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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
पिता शिवजी सेठ तो थरथर काँपने लगे कि बच्ची को यह सरफिरा राजा अब क्या करेगा - कहीं मारेगा, पीटेगा, पकड़ रखेगा ? ___ बालिका धनबाई तो प्रसन्न निर्भीकता से राव के पास जा बैठकर वही बात सीधी ही उन से दोहराकर पूछने लगी -
"रावसाहब ! क्या आपका ही दिमाग नहीं फिर गया है ? सर पर नहीं, हृदय पर हाथ रखकर सच कहिये..... !" ___और सकपकाते हुए अंतर्दोषी राजा अपने आपको अधिक छिपा नहीं सके । बालिका की आँखों के तेज और आवाज़ की बुलन्दी के सामने वे ढीले पड़ रहे थे । राव कुछ उत्तर दे उतने में तो ज्ञानी बालिका का उनके भीतर के गुप्त पापाशय को झकझोरनेवाला पुण्यप्रकोप प्रकट हुआ - "प्रजा के पिता समान होते हुए भी 'रावण' जैसा काम करने जाते हुए, प्रजापुत्री परस्त्री का हरण करने जाते हुए आपको शर्म नहीं आती ? क्या इस पापकर्म को आप करने नहीं जा रहे ? क्या आपके ऐसे अधम आशय के लिये मैं आप को मार्ग दूँ ?" ___ और अवाक् राव, इतनी छोटी सी - बालिका में साक्षात् किसी देवी का दर्शन कर उसके चरणों में झुक गया । दोष स्वीकार किया, क्षमा माँगी, वहाँ से ही लौट जाने को स्वीकार किया और जाते जाते बालिका से एकांत में दो प्रार्थनाएँ की : ___"हे धनदेवी ! अपने पिता के साथ की इस यात्रा से लौटने पर मेरे महल पर आकर मुझे धर्म सुनाना और मेरे इस पापाशय को किसी के सामने प्रकट न कर गुप्त रखना ।" बालिका ने दोनों बातें सहर्ष स्वीकार की और उसे क्षमा कर वहीं से लौटाया ।
इधर काँपते हुए पिता के होश तब ठिकाने पर आये जब पुत्री धनबाई हँसती हुई उनके पास लौटी और वे विशेष स्तम्भित रह गये जब राव का सारा काफिला वहीं से लौटा । बालिका से सारी घटना और इस लौटने का कारण जानने में वे असमर्थ और निराश रहे । बालिका बिलकुल मौन रही।
वे दोनों अपने गंतव्य को चल पड़े । बालिका धनदेवी की बाट जोह रहे राव का जब उसके गाँव से लौटने पर फिर बुलावा आया, तब राव के शिकार, जुआ, परस्त्रीगमन आदि सात व्यसनों का त्याग करवा कर धनदेवी ने उसे "भगत" जैसा परिवर्तित कर दिया । तभी पिता को बालिका की किसी अद्भूत विलक्षणता का पता चला, परन्तु वह स्वयं तो तब भी थी नितान्त मौन । ___ तब से ही ऐसे अनेक अद्भुत प्रसंगों, अगम्य अनुभवों, गूढ़ संकेतों, जीवन रहस्यों एवं अगमचेती भरे निर्देशों के कारण आसपास के लोग बालिका धनबाई से एक ओर से चकित - स्तम्भित थे तो दूसरी ओर से संदेह भरे । उन्हें 'भूतड़ी' और 'जादुगरनी' जैसे उपनाम भी अज्ञानवश दिये गये किन्तु उनके भीतर की निर्मल ज्ञान संपदा की पहचान पाने में वे सब सर्वथा असमर्थ रहे ।
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