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सृजित ) ऐसी दुनिया ही न बनाई गई होती !! हम्पी में, वात्सल्यमयी माँ के चरणों में जो अपनापन, जो मिलता है, वह इसमें कहाँ ? वहाँ के लोग जैसे इन्हें जानते ही न हों... ! . फिर भी जिम्मेदारियाँ हमें खींचती हैं जाने पर बाध्य करती हैं विवश होकर जाने के लिये चल देती हूँ तो यह संकल्प करके कि - "फिर भी यहाँ वापस आऊँगी, जल्द ही ।" घनरात्रि में ये विचार शामिल हो जाते हैं और मन पर फिर से शांति छा जाती है ।
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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
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( कापीराइट लेख)
नोट : इस लेख को लिखने के कुछ वर्ष बाद लेखिका कु. पारुल की दिव्यप्रेम की प्यासी आत्मा, इस " खोखली दुनिया" को छोड़कर ( २८.८.८८ को बस एक्सीडैन्ट को निमित्त बनाकर ) चली गई..... शायद अपने सूक्ष्म आत्मस्वरूप से इसी आत्मज्ञा माँ के चरणों में विचरने !! - प्र.
योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानन्दघनजी संस्थापित श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, हम्पी, कर्नाटक की अधिष्ठात्री परमपूज्या रहस्यवादिनी आत्मज्ञा जगत्माता
ले. प्रा. प्रतापकुमार टोलिया
बात अब से कुछ ६५ वर्ष पूर्व की । गुजरात कच्छ के एक गाँव 'सांभराई' में एक विलक्षण बालिका का पावन जन्म हुआ । पूर्व संस्कारों की संपन्नता के कारण बाल्यावस्था से ही वह निर्मल ज्ञानपूर्ण थी ।
एक दिन, चार साल की आयु में वह अपने पिता के साथ सांभराई से दूसरे गाँव पैदल जा रहीं थी । दोनों ओर टीलोंवाला सँकरा रास्ता आया । एक ही वाहन गाड़ी जा सके उतनी ही चौड़ाई। पीछे से उस प्रदेश के छोटे-से रियासती राव राजा - का 'वेलड़ा' (वाहन), अपने रिसाले के साथ आ रहा था । बालिका धनबाई उस सँकरे मार्ग के बीचोबीच चल रही थी । उसके पिता शिवजी सेठ तो पीछे से आ रहे वाहनों को मार्ग देने एक ओर खिसक गए, किन्तु बालिका, वाहनचालकों के कई बार आवाज़ देने पर भी, हटी नहीं बीच से ।
चालक ने ज़ोर की आवाज़ देकर उसे धमकाया -
" अरे बच्ची ! हट जा बीच से । तेरा दिमाग फिर गया है क्या ? अंदर राव बैठे हैं, तुझे पकड़ लेंगे ... ।" परन्तु बालिका ने इस पर भी बिना हटे, उसी निर्भयतापूर्वक चलते हुए प्रति प्रश्न किया . "दिमाग किसका फिर गया है, मेरा या राव का ? पूछो उन से.....'
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और वेलड़े के भीतर बैठा हुआ राव इस सच्चाई को सुनकर चकित और भयभीत हुआ । उसने बालिका को अपने पास, एकांत में, वेलड़े के भीतर अकेली बुलाया। सभी को दूर हटा दिया ।