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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा
दक्षिणापथ की साधनायात्रा : आमुख
साधना की स्थिति परम धन्य है, जो इसके पथ पर चल पड़ता है वह स्वयं अपने को तथा दूसरों को भी धन्य बना सकता है । इस पथ पर चलने वाले को क्रमशः प्रकाश प्राप्त होने लगता है और धीरे-धीरे परम प्रकाश की सिद्धि प्राप्त हो जाती है । हज़ारों सूर्यों के प्रकाश से भी अधिक तेजोवान आत्मा का प्रकाश होता है। जिसको वह प्रकाश प्राप्त हो जाता है उसके भीतर से अज्ञान का अन्धकार समाप्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ हो जाता है । 'सत्यं ज्ञानं अनन्तम् ब्रह्म' ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनंत तत्त्व है । जिसे वह ब्रह्मसिद्धि प्राप्त हो जाती है उसकी चेतना अनन्तभेदिनी हो जाती है । उस अनन्त चेतना में सब कुछ समा जाता है, यह अनन्त चेतना सब कुछ देखने लगती है। कोई वस्तु इससे छिप नहीं सकती । ब्रह्मज्ञानी सर्वज्ञ हो जाता है। सब कुछ जानता है । जो ब्रह्मज्ञानी नहीं होता उसकी चेतना अनन्त न होकर सीमित ही रहती है। सीमा में सर्व कैसे समा सकता है ? सीमित चेतनावाला मनुष्य सर्वज्ञ कैसे हो सकता है ?
साधना के पदों का निर्माण गुरु की सहायता से होता है, इस पथ पर वही गुरु आगे ले जा सकता है जो स्वयं यह यात्रा पूरी कर चुका रहता है । जो स्वयं पथ नहीं जानता वह शिष्य को कहाँ ले जा सकता है । इसी सत्य का उद्घाटन करते हुए कबीर ने कहा है - जाका गुरु है अन्धला चेला खरा निरन्ध । अन्धा अंधे ठेलिया दून्यूँ कूप पड़न्त । - जिसका गुरु अंधा है वह शिष्य भी उससे अधिक अंधा होगा । जब एक अंधा दूसरे अंधे को ठेल-ठेल कर आगे बढ़ाता हैं, तो दोनों एक साथ कुएँ में गिरते हैं ।
सच्चे गुरु का लक्षण बताते हुए कबीर कहते हैं - बलिहारी गुरु आपणी द्यौ हाड़ी के बार । लोचन अनंत उघाड़िया अनंत दिखावण हार । - गुरु आप धन्य हैं। आप तो स्वर्गीय अनन्त सत्य का दर्शन हर क्षण करते रहते हैं । आपने मेरे भीतर अनन्त नयन खोल दिये जिससे मैं अनन्त को देख सकूँ । - अनन्त लोचन ही अनन्त का दर्शन करा सकते हैं। जो नेत्र जगत् के स्वार्थों की साधना के लिये केवल कुछ ही लोगों तक सीमित रह जाते हैं, वे अनन्त को कैसे देख पायेंगे । जब नयनों की सीमा अनन्त बन जाती है तभी अनन्त सत्य परमात्मा का दर्शन होता है । परमात्मा की प्राप्ति नहीं उसका दर्शन ही होता है । प्राप्त तो वह हर क्षण में रहता है; पर उस प्राप्त को अज्ञान देखने नहीं देता । ठीक उसी तरह जिस तरह कोई वस्तु हमारे हाथ में ही रहती है, पर हम उसे ढूँढ़ते रहते हैं । कबीर ने कहा है-तेरा साई तुज्झ में ज्यों पुहुपन में बास । कस्तूरी के मिरग ज्यूँ इत उत सूँघ घास । तेरा स्वामी तो तेरे ही भीतर है जैसे फूल की सुगन्ध फूल में समाई रहती है । कस्तूरी की सुगन्ध मृग के भीतर ही रहती है, पर वह उसे पाने के लिये इधर-उधर घास सूँघता रहता है । प्रत्येक परमाणु में शक्ति बनकर बैठा हुआ परमात्मा प्रति पल सब को प्राप्त है; पर उसको देखने की शक्ति प्राप्त करनी पड़ती है ।
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