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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
पुनः गिरि-कंदराओं में से घोष उठा :
"विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम्-स्वयं के तत्त्व को पहचान !.. पश्य पश्य स्वरूपम् - अपने आत्मरूप को देख !".....
इस प्रतिध्वनि के साथ मेरी आत्मा मुक्त आकाश में विहार करने लगी, और मैं अनिच्छापूर्वक रत्नकूट की उस धरती पर नीचे उतरने लगा- उस आश्रम के केंद्र और मेरे जीवन के आराध्य परमगुरु श्रीमदजी की भव्यात्मा को नमन करते हुए :
"देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत, ते ज्ञानीना चरणमां, हो वंदन अगणित ।"
मेरी यह साधना-यात्रा बाहर से समाप्त हो चुकी है... परंतु आंतरिक रूप में जारी है। आज मैं स्थूलरूप से उस योगभूमि से दूर हूँ, और अब भी दूर जा रहा हूँ, परंतु रत्नकूट की गुफाओं के वे गंभीर ज्ञानघोष मुझे कर्म के प्रत्येक संसार में, योग के प्रत्येक प्रवर्तन में, विवेक एवं विशुद्धि, अनासक्ति एवं जागृति बनाये रखने की प्रेरणा दे रहे हैं, नित्य-नैमित्तिक कर्त्तव्य एवं जीवन व्यवहार के बीच ‘स्वरूप' से मेरा अनुसंधान करा रहे हैं :
"विद्धि विद्धि स्वतत्त्वम् ..... ।" "पश्य पश्य स्वरूपम् ..... ।" "जिसने आत्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया..... ।"
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