________________
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
अवधूत की अंतर्गुफा में -
उक्त मार्ग हर प्रकार की आत्यंतिकता से मुक्त, स्वात्मदर्शन से समन्वित, संतुलित एवं संवादपूर्ण साधनापथ है । 'निश्चय' एवं 'व्यवहार', आचार एवं विचार, साधना एवं चिंतन, भक्ति एवं ध्यान, ज्ञान एवं क्रिया की संधि करानेवाला है। श्रीमद् की 'आत्मसिद्धि शास्त्र' के ये शब्द इसे स्पष्ट करते हैं -
"निश्चयवाणी सांभळी साधन तजवां नो'य, निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवां सोय..."
इस निश्चय, इस आत्मावस्था को लक्ष्य में रखते हुए, विविध साधना प्रकारों में जोड़ते हुए, सहजानंदघनजी इस साधना-पथ को प्रशस्त कर रहे हैं ।
उनकी खुद की साधना भी ऐसी ही संतुलित है। वीतराग-प्रणीत सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चरित्र की त्रिविध रत्नमयी उनकी यह साधना अब भी जारी है। उन्होंने ज्ञान और क्रिया की संधि की है। इसी में भक्ति का समावेश भी हो जाता है। उनकी ध्यान की भूमिका उच्च धरातल पर स्थित है। उनकी यह साधना निरंतर, सहज एवं समग्र रूप से चल रही है केवल निज स्वभाव- अखंड वर्ते ज्ञान...' आत्मावस्था का यह सहज स्वरूप उनका ध्रुव-बिंदु है । सर्वत्र उन्होंने श्रीमद् का अनुसरण किया है। इस साहजिक तपस्या एवं साधना हेतु वे कई नीति नियमों का पालन भी करते हैं । ये दिगंबर क्षुल्लक चौबीस घंटों में मात्र एकबार भोजन-पानी लेते हैं। उनके भोजन में शक्कर, तेल, मिर्चमसाले, नमक का समावेश नहीं होता । कभी-कभी साधकों के मार्गदर्शन हेतु या सत्संग-स्वाध्याय, ध्यान-भक्ति की सामूहिक साधना हेतु वे बाहर आते हैं । अन्यथा वे अपनी गुफा में ही रहते हैं । शाम के सात बजे गुफा के द्वार बन्द हो जाते हैं- वे रत्नकूट की इस स्थूल अंतर्गुफा के साथसाथ रत्नमय आत्म-स्वरूप की सूक्ष्म अंतर्गुफा में खो जाते हैं। __मैंने उनकी बहिर्साधना देखी थी, बाह्य रूप का दर्शन किया था, परंतु इतने से संतोष न था... मैं उनकी स्थूल अंतर्गुफा के साथ सूक्ष्म अंतर्साधना का परिचय पाना चाहता था । शरद-पूनम की उस चांदनी रात को गुफा मंदिर के सामुदायिक भक्ति कार्यक्रम में मेरे सितार के तार झनझना रहे थे । इस दिव्य वातावरण का आनन्द उठाता हुआ मैं सितार के तारों के साथ-साथ अंतर के तार भी छेड़ रहा था.. मस्त विदेही आनंदघनजी एवं श्रीमद् राजचंद्रजी के पद एक के बाद एक अंतर से निकले -"अवधु ! क्या मांग गुनहीना?" और "अब हम अमर भये न मरेंगे।" तभी भद्रमुनिजी बाहर आये एवं मेरे सामने बैठ गए । मैं प्रमदित हआ। मेंने सोचा-"उनकी तरह अंतर्लोक की आत्म गुफा में से मेरी परिचित, उपकारक एवं उपास्य पाँच दिवंगत आत्माएं भी यहां उपस्थित हों तो मैं धन्य हो जाऊँ। तब भक्ति का रंग और निखरेगा... अगर माताजी के-से भाव अंतर से प्रस्फुटित हों तो वे अवश्य आयेंगें..... इस विचार से उल्लास से बढ़ने लगा..... सितार के तार बजते रहे, अंतर में से स्वर निकलते रहे, अंतरात्मा ने उन पाँच दिव्य आत्माओं को निमंत्रण दिया, आंखें बंद हुईं एवं बागेश्री के स्वरों में श्रीमद्जी कृत यह गीत ढल गया :
(66)