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उस गुफा में से सुन्दर, स्थूल प्रतिमाएँ प्रकट हो रही थीं, तो उनकी अन्तरात्मा की सूक्ष्म अन्तर्गुफा में से उनका सूक्ष्म, आन्तरिक स्वरूप । वैखरी - मध्यमा - पश्यंति के स्तरों को पार करती हुई उनकी 'परा' वाणी उनके अन्तर्लोक की ओर संकेत कर रही थी, आत्मा के अभेद परमात्म-स्वरूप को प्रकट कर रही थी ।
उनकी गुफा एवं उनके अंतर के उस निगूढ़तम स्वरूप तक पहुँचकर, उसका सार पाकर मैं आनन्दित था, कृतार्थ था ।
इस संस्पर्श के पश्चात् अपनी स्वरूपावस्था को विशेष रूप से जाग्रत करता हुआ मैं अपनी देह का किराया चुकाने, आहार रुचि न होने पर भी, भोजनालय की ओर चला । जब “मौन” महालय " मुखर" हुए
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भोजन इत्यादि के बाद मैं निकट के एतिहासिक अवशेष देखने निकल पड़ा । विजयनगर - साम्राज्य के ६० मील के विस्तार में ये अवशेष फैले हैं - महालय, प्रासाद, स्नानगृह, देवालय एवं ऊँचे शिल्पसभर गोपुर; श्रेणीबद्ध बाज़ार, दुकानें, मकान, राज-कोठार एवं हस्तिशाला – इन पाषाण अवशेषों में से उठ रही ध्वनि सुनी। एक मंदिर के प्रत्येक स्तंभ में से विविध तालवाद्यों के स्वर सुनाई दे रहे थे ।
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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
दूर दूर तक घूमकर ढलती दोपहरी के समय 'रत्नकूट' को लौटा और एक शिला पर खड़ा होकर उन अवशेषों को देखता रहा
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वे
मूक पत्थर एवं मौन महालय 'मुखर' हो बोल रहे थे, अपनी व्यथाभरी कथा कह रहे थे, मेरे कान और मेरी आँखें उनकी ओर लगी रहीं..... उन पाषाणों की वाणी सुनकर मैं अत्यंत अंतर्मुखहुआ कई क्षण इसी नीरव, निर्विकल्प शून्यता में बीत गये............. अंत में जब बहिर्मुख कितकितने साम्राज्य
हुआ तब सोचने लगा - " कितनी सभ्यताओं का यहाँ निर्माण एवं विनाश हुआ; यहाँ खड़े हुए और ध्वस्त हो गये !! कितने राजा
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महाराजा आये और चले गये !!
"ये टूटे खंडहर एवं शिलाएँ इसके साक्षी हैं। वे यहाँ हुए उत्थान - पतन का संकेत देते हैं और निर्देश करते हैं जीवन की क्षणभंगुरता की ओर; Ozymandias of Egypt की पाषाण मूर्ति की तरह उस अरूप, अमर, शाश्वत आत्मतत्त्व का भी संदेश दे जाते हैं, जिसका कभी नाश नहीं होता, और जिसे कई महापुरुषों ने इसी पुण्यभूमि पर प्राप्त किया था !"
ध्यानारूढ़ योगियों की चरण रेणु से घूसरित “शिलाओं के चरण पखारता, कलकल निनाद करता, हस्ति-सी मंथर, गंभीर गति से बह रहा है- तुंगभद्रा का मंजुल नीर ! उनके अविरत बहाव में से घोष उठ रहा है- "कोऽहम् ? कोऽहम् ?" "मैं कोन हूँ? मैं कौन हूँ ?"
और निकट की शिलाओं में से प्रतिघोष उठता है - "सोऽहम् .... सोऽहम् ..... शुद्धोऽहम् बुद्धोऽहम् . . निरंजनोऽहम् .... सच्चिदानंदी शुद्ध स्वरुपी अविनाशी मैं आत्मा हूँ.... आनंदरूपोऽहम् सहजात्मरुपोऽहम् ।”
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