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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
"अपूर्व अवसर ऐसा आयेगा कभी ? कब होंगे, हम बाह्यांतर निर्गन्थ रे, सर्व संबंध का बंधन तीक्ष्ण छेद कर,
कब विचरेंगे महत्पुरुष के पंथ रे ?" गीत में खेंगारबापा सम्मिलित हुए... उनके साथ सारा समूह भी गाने लगा... करताल एवं मंजीरा बजता रहा भद्रमुनिजी के हाथ में खंजड़ी आ गई... शायद आत्माराम एवं माताजी भी डोल रहे. थे... __ अद्भुत मस्ती थी वह... देहभान छूटने लगा, शरीर के साथ-साथ सितार के संग की प्रतीति भी हटने लगी... एवं एक धन्य घड़ी में मैंने अनुभव किया- "मैं देह से भिन्न केवल आत्मस्वरूप हूँ। उसी में मेरा निवास है... वही निज़ निकेतन है... मेरे इस निवास को सदा बनाये रखनेवाला अपूर्व अवसर कब आयेगा?" यह भावदशा काफी समय तक जागी रही । मैंने उन पाँच दिव्य आत्माओं का आभास भी पाया... वे प्रसन्न हो मुझे आशीर्वाद दे रहे थे..... प्रफुल्लित, प्रमुदित, परितृप्त मैं करीब पौन घंटे तक २१ गाथाओं का संपूर्ण 'अपूर्व अवसर' का पद गाता रहा ।
गीत पूरा हुआ, सितार नीचे रखा, परंतु मेरी भावदशा वैसी ही बनी रही । मैं धन्य हुआ। सबसे अधिक प्रसन्न था मैं । सहजानंदघनजी ने सबकी प्रसन्नता व्यक्त की एवं उठ खड़े हुए..... उनका आशीर्वाद पाकर मैंने लोभवश उनसे मुलाकात का समय ले लिया, ताकि मैं उनकी अंतर्दशा का संस्पर्श कर सकुँ । उस समय रात के तीन बजे थे, पर मैं थका न था और अपूर्व अवसर की उस जाग्रतावस्था में रहना चाहता था, अतः उस समूह से दूर एक एकांत, असंग शिला पर ध्यानस्थ हुआउस पुण्यभूमि की चांदनी एवं नीरवता में शून्यशेष आत्मदशा का जो आनंद पाया, वह अवर्णनीय, अपूर्व था। ध्यान के अंत में उसे अपनी 'स्मरणिका' में शब्दबद्ध करने का प्रयास (वृथा प्रयास ! क्या उसे शब्दों में बांधा जा सकता है ?) किया, शरीर को थोड़ा आराम दिया एवं सुबह सहजानंदघनजी से मिलने अंतर्गुफा की ओर चला ।
मुनिजी गुफामंदिर में बैठे थे । गुणग्राहिता की दृष्टि से उनसे कुछ पाने एवं उनका साधनाक्रम समझने, मैंने घंटों उनसे चर्चा की। इस चर्चा से मेंने उनके गहन ज्ञान, उनकी आत्मानुभूति, पराभक्ति, उन्मुक्तता, प्रेम, बालक की-सी सरलता एवं उच्च ज्ञान दशा का परिचय प्राप्त किया। उनसे प्रेरणा भी मिली, समाधान भी । काफी समय व्यतीत होने पर भी उन्होंने अत्यंत उदारता एवं अनुग्रहपूर्वक प्रश्नों को सुलझाया । इससे उनकी अंतर्दशा-तत्त्वदृष्टि एवं बहिर्साधना का दर्शन हुआ । प्रेमवश उन्होंने अपनी अंतर्गुफा की झलक भी दिखलायी; यह मेरा सौभाग्य था, क्योंकि यहां किसी को प्रवेश नहीं मिलता (यह सहज भी है) हम स्वयं अपनी ही अंतर्गुफा में जाने की क्षमता नहीं रखते । मुनिजी ने गुफा की चंदन, धातु, रत्न की विविध कलात्मक जिन-प्रतिमाएँ भी दिखलाईं। चंदन की प्रतिमा की पूजा दैवी वासक्षेप से हुई थी..... उस पर वह अद्भुत, केसरी-पीला, सुगंधित वासक्षेप था... विशेष रूप से उस एकांत गुफा में से शांति, नीरवता विकल्प-शून्य स्वरूपावस्था के जो परमाणु, जो आंदोलन निकल रहे थे, वे मुझे ध्यानस्थ कर रहे थे- जागृत रूप में, 'स्व'रूप की ओर ।
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