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। श्री सहजानंदघन गुरूगाथा
सम्यग् साधना की समग्र दृष्टि :
शिवपुर-निजदेशकी ओर संकेत करते ये घोष-प्रतिघोष मेरे अंतरपट से टकरा कर स्थिर हो चुके थे - आश्रमभूमि पर मेरे प्रथम २४ घंटों के अंतर्गत ही ! इस अल्प समय में मैने कई अनुभव किये !! अनुभवी ज्ञानियों का संग पाकर मेरी विश्रृंखल साधना पुनः सुव्यवस्थित हुई । मैं दुबारा मुनिजी के पासे जाने के लोभ का संवरण न कर पाया।
पुनः उनके साथ महापुरुषों की जीवन-चर्चा एवं उनकी सम्यग् साधना दृष्टि से संबंधित प्रश्नचर्चा हुई। महायोगी आनंदघनजी विषयक मेरी जिज्ञासा के साथ इसका आरंभ हुआ। भगवान महावीर, तथागत बुद्ध, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य, आचार्य हरिभद्रसूरि, देवचंद्रजी, यशोविजयजी, कृपाळुदेव श्रीमद् राजचंद्रजी, कुंदकुंदाचार्यजी और विहरमान तीर्थंकर भगवान सीमंधर स्वामी जैसे लोकोत्तर व्यक्तियों की चेतनाभूमि में मुनिजी के संग मैंने विहार किया..... उन दिव्य-प्रदेशों की यात्रा ने मुझे अत्यंत समृद्ध एवं स्वस्थ-सभर बना दिया ।
तत्पश्चात् वर्तमान जैनाचार्यों एवं अन्य महापुरुषों के साधना प्रदेश में विचरण किया। गांधीजी, श्री अरविंद. रवीन्द्रनाथ, मल्लिकजी, विनोबाजी, चिन्नम्मा इत्यादि की साधनादष्टि की तुलना चली। इससे मैंने यही सार निकाला : “आत्मदीप बन ! ..... अपने आपको पहचान ..... तू तेरा सम्हाल !"
और इसके फलस्वरूप मेरी विद्या की, ज्ञान-दर्शन-चारित्र साधना की, आत्मानुभूति की अभीप्साएँ पुनः जाग्रत हुईं । वीतराग प्रणीत साधनापथ एवं श्रीमद् राजचंद्रजी का जीवनदर्शन, आज तक के मेरे अनुभव एवं आज की प्रश्नचर्चा के बाद मुझे अपना उपादेय प्रतीत होने लगा। कुछ समय पश्चात्, अपनी साधना दृष्टि का विशेष रूप से स्पष्टीकरण करने हेतु मैंने उनसे (सहजानंदघनजी से पत्र द्वारा) प्रश्न किया था। उनके उत्तर से श्रीमद् की, उनकी-खुद की और आश्रम की समग्र, सारग्राही, संतुलित साधनादृष्टि प्रकट होती है। उन्होंने लिखा था : "आपके हृदयरुपी मंदिर में अगर श्रीमद् की प्रशमरस निमग्न, अमृतमयी मुद्रा प्रकट हुई हो, तो उसे वहीं स्थिर बनाइए । अपने चैतन्य का उसी स्वरूप में परिणमन ही साकार उपासना का साध्य बिंदु है, वही सत्यसुधा है । हृदयमंदिर से सहस्रदल कमल में उसकी प्रतिष्ठा कर, वहीं लक्ष्यवेधी बाण की तरह चित्तवृत्ति प्रवाह का अनुसंधान बनाये रखना, यही पराभक्ति या प्रेमलक्षणा भक्ति है। इसी अनुसंधान को शरण कहते हैं। शर अर्थात् तीर ।शरणबल से स्मरण भी बना रहता है । कार्यकारण न्याय से शरण एवं स्मरण की अखंडता सिद्ध होती हैं; संपूर्ण आत्म-प्रदेश पर चैतन्य-चांदनी छा जाती है; सर्वांग आत्मदर्शन एवं देहदर्शन की भिन्नता स्पष्ट होती है; एवं आत्मा में परमात्मा की छवि विलीन हो जाती है। आत्मा-परमात्मा की यह अभेद की दशा ही पराभक्ति का अंतिम बिंदु है । वही वास्तविक उपादान सापेक्ष सम्यग् दर्शन का स्वरूप है: "वह सत्यसुधा दरसावहिंगे,
चतुरांगल व्है दृग से मिलहै, रस देव निरंजन को पिबही,
गही जोग जुगोजुग सो जीव ही ।"
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