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'शाश्वत' की ओर संकेत कर रहे इन घोषों-प्रतिघोषों को उन 'विकृत' खंडहरों (और अब भी ऐसे निष्प्राण भवन खड़े कर रहे नशोन्मत्त सत्ताधीशों) ने सुना या नहीं, इसका पता नहीं, परंतु मेरे अंतर में यह घोष उतर चुका था, गूँज रहा था, मैं आनंदित हो रहा था, शून्यशेष हो रहा था, मेरे शाश्वत आत्मस्वरुप की विकल्परहित संस्थिति में ढल रहा था !
और अब तो महालयों के वे अवशेष भी मुखर होकर अपनी हार के साथ शाश्वत के संदेश को भी स्वीकार कर रहे थे..... अविचलित थे वे सत्ताधीश, जो इस अनादि रहस्य को समझने में असमर्थ थे । ये घोष-प्रतिघोष शायद उन तक न पहुँच सके, परंतु रत्नकूट की गुफाओं में गूंज रहे राजचंद्रजी के ज्ञान-गंभीर घोष तो वे सुन सकते हैं, अगर उनके कान इसे सुनना चाहें ! जड़ पदार्थो की क्षणभंगुरता के बारे में श्रीमद् कहते हैं :
"छो खंडना अधिराज ने चंडे करीने नीपज्या, ब्रह्मांडमां बलवान थईने भूप भारे ऊपज्या; ए चतुर चक्री चालिया होता-नहोता होइने,
जन जाणीए मन मानिए नव काळ मूके कोइने... ! "जे राजनीति निपुणतामां न्यायवंता नीवड्या, अवळा कर्ये जेना बधा सबळा सदा पासां पड्यां, ए भाग्यशाळी भागिया ते खटपटो सौ खोईने, जन जाणीए मन मानीए नव काळ मूके कोईने ... !” ('मोक्षमाला' )
गुफा में गूंज रही आनंदघनजी की आवाज़ भी यही कह रही है - "या पुद्गल का क्या विश्वासा,
झूठा है सपने का वासा
झूठा तन धन झूठा जोबन, झूठा लोक तमासा,
आनंदघन कहे सब ही झूठे, साचा शिवपुर वासा ।"
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और भूधर एवं कबीर के दोहे भी " राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार, मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार !"
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा
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"कबीर थोड़ा जीवणा, मांडे बहुत मंडाण । सब ही ऊभा मेलि गया, राव रंक सुलतान"
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( आनंदघन पद्य रत्नावली )
( - भूधरदास : बारह भावना )
( - कबीर : कबीर ग्रंथावली )