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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
| प्रकरण-८ Chapter-8 | दक्षिणापथ की साधना-यात्रा
प्रा. प्रतापकुमार टोलिया अनुवादिका : स्व. कु. पारुल प्र. टोलिया
दक्षिण भारत के प्राचीन एतिहासिक तीर्थ रत्नकूट-हम्पी-विजयनगर पर निर्मित हो रहे नूतन तीर्थधाम 'श्रीमद् राजचंद्र आश्रम', उसके संस्थापक महामानव
योगीन्द्र युगप्रधान, श्री सहजानंदघनजी एवं कुछ साधकों की प्रथम दर्शन-मुलाकात की एक परिचय-झांकी : एक झलक १९६९ की
कर्नाटक प्रदेश : बेल्लारी जिला : गुंटकल-हुबली रेल्वे लाइन पर स्थित होस्पेट रेल्वे स्टेशन से सात मील दूर बसा हुआ प्राचीन तीर्थधाम हम्पी.....
यहाँ पर केले, गन्ने और नारियल से छाई हुई हरियाली धरती के बीच-बीच खड़ी हैं असंख्य शिलाएं और छोटी बड़ी पथरीली पहाड़ियाँ । साथ ही साथ दूर तक मीलों और मीलों के विस्तार मे फैले पड़े हैं- जिनालय, शिवालय, वैष्णव मंदिर और विजयनगर साम्राज्य के महालयों के खंडहर एवं ध्वंसावशेष । हम्पी तीर्थ के नीचे के भाग में खड़े विरूपाक्ष शिवालय और उसके निकट की ऊँचाई पर स्थित "हेमकूट", "चक्रकूट" के अनेक ध्वस्त जिनालयों के ऊपरी पूर्व भाग में फैली हुई हैं रत्नगर्भा वसुन्धरा की सुरम्य पर्वतिका "रत्नकूट"। रत्नकूट के उत्तरी भाग में नीचे कुछ चक्राकार बह रही है - स्थित प्रज्ञ-की-सी तीर्थ-सलिला तुंगभद्रा सदा-सर्वदा, अविरत, बारह माह ।
बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समय से अनेक महापुरुषों एवं साधक जनों ने पौराणिक एवं प्रकृतिप्रलय के परिवर्तनों की स्मृति दिलाने वाले इस स्थान का पावन संस्पर्श किया है। दीर्घकाल व्यतीत होते हुए भी उनकी साधना के आंदोलन एवं अणु-परमाणु इस धरती और वायु-मण्डल के कणकण और स्थल स्थल में विद्यमान प्रतीत होते हैं । मुनिसुव्रत भगवान के शासन काल में अनेक विद्याधर सम्मिलित थे-उनमें विद्यासिद्ध राजाओं में थे-रामायण प्रसिद्ध बाली, सुग्रीव आदि । यह विद्याधर भूमि ही उनकी राजधानी थी। 'वानर द्वीप' अथवा 'किष्किन्धा नगरी' के नाम से वह पहचानी गई है। यहाँ के अनेक पाषाण अवशेष उसकी साक्षी देते हैं। तत्पश्चात् एक लम्बे से काल-खंड के बीतने के पश्चात् सृजित हुए-विजयनगर के सुविशाल, सुप्रसिद्ध साम्राज्य के महालय और देवालय । ईस्वी सन् १३३६ में एवं १७वीं शताब्दी तक अपना अस्तित्व टिकाये रखकर अन्त में विविध रूप में विनाश को प्राप्त ये महालय अपने अपार वैभव की स्मृति छोड़ते गये, ऊंचे अडिग खड़े उनके खंडहरों के द्वारा ।
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