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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
परिशुद्ध आत्मानुभूति का मार्ग । उसके प्रणेता परिपूर्ण, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ आर्हत् । उनका सुस्पष्ट ऐसा स्याद्वादी-अनेकांतवादी अनंत अनंत नय-निक्षेपों से पूर्ण दर्शन, आत्मदर्शन । उसके द्वारा स्वद्रव्यस्वक्षेत्र-स्वकाल-स्वभाव में हो सकनेवाला विचरण । उसके जरिये बहिरात्मदशा से अंतरात्मदशा, शुद्धात्मदशा-सिद्धात्मदशा में पहुंचानेवाला ऊर्ध्वगमन । ऐसा ऊर्ध्वलोकानुगमन कि जहाँ विलसित है “एक परमाणु मात्र की मिले नहीं स्पर्शना" युक्त शुद्धात्मा का पूर्ण निरंजन, अकलंक, अव्याबाध आनंद स्वरूप-सच्चिदानंद स्वरूप- सहजानंद स्वरूप । जहाँ प्रवर्तमान है - महाभाग्य सुखदायक, पूर्ण, अबंध ऐसा अयोगी गुणस्थानक, विविध योगों से पार का 'अ-योग' का गुणधाम, निजधर, निजनिकेतन, परमपद !!
उस परमपद की प्राप्ति का हमने-आपने-सभीने ध्यान लगाया है, भावन किया है, परंतु उस हेतु अपेक्षित शक्ति, क्षमता, योग्यता-पात्रता कहाँ ?
बिना सामर्थ्य के हमारे उस 'हाल मनोरथरूप में से यदि संनिष्ठ सद्गुरुश्रद्धा एवं सद्गुरुआज्ञा प्रेरित हमारा पुरुषार्थ होगा तो हमारी उस श्रद्धादि के प्रतिफल रूप में प्रभु परमगुरु ही हमें उठाकर अवश्य वहाँ ऊँचे पहुँचा देंगे । हम हमारा यह आज्ञापूर्ण पुरुषार्थ गतिमान रखें । पुरुषार्थसभर इस जिन-ध्यान-निजध्यान के अंत में, हमारी अंतस्-श्रद्धा और दृढ़ आत्मविश्वासपूर्ण संकल्प कहते हैं कि हम उस परमपद पर पहुँचानेवाला केवलज्ञान पायेंगे ही :
"पामशुं, पामशुं, पामशुं रे अमे केवलज्ञान हवे पामशुं"
"आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे ।" परम पुरुषार्थ से, परम अनुग्रह से, प्रभु आज्ञा से हम आप सभी तो वह परमपद प्राप्त करेंगे ही, परंतु हमारे साथ का उस जिनमार्ग-मूलमार्ग का आराधक यह सांप्रत सहयात्री साधक समाज भी वह क्यों न प्राप्त करें ? क्यों वह पीछे रहे ? भीतर से महावेदना की टीस उठती है उसकी आज की प्रमादपूर्ण, शिथिल, छिन्नभिन्नता की भेदों से भरी हुई दशा-अवदशा को देखकर ! जैन योगमार्ग की इस अनुचिंतना के अंत में प्रश्न उठता है - प्राण प्रश्न उठता है :
__ "अनंत उपकारक तीर्थंकर भगवंतों के कतिपय पूर्वो-आगमों द्वारा प्रबोधित जिनमार्ग का अनुगामी जैन समाज आज कहाँ है ? उन आगमों के धारक गणघरों द्वारा प्ररुपित-प्रतिबोधित जीवनदाता, रोगनिवारक योगविद्याओं के होते हुए भी हमारी बाह्यांतर अवस्था ? महाप्राणध्यानध्याता 'भद्रबाहु का, गृहस्थों के हेतु भी, योगग्रंथ योगशास्त्र प्रदाता महाउपकारक हेमचंद्राचार्य का अनुयायी, 'योगी' बनने हेतु निर्मित हमारा "अहिंसक" जैन समाज इतना रोगी क्यों ? चारों ओर इतने रोग और "हिंसक" अस्पतालों की भरमार ? हमारी निर्दोष शाकाहारी, सवास्थ्यप्रद, शांत जीवनचर्या होते हुए भी ?
क्या उसने हमारे व्रतों-अनुष्ठानों-चर्याओं का, योग के सत्साधनों का भली भाँति विवेकजागृतिपूर्वक पालन किया नहीं हैं ? क्या वह अभावों अथवा अति-योगों में डूबकर प्रमाद में पड़ गया है ? क्या वह स्वयं ही रात्रिभोजनादि, अभक्ष्याहारादि में लुढ़ककर पथभ्रष्ट हो गया है ?
उक्त परमयोगी इस ओर भी उंगली उठाते हैं, पद पद पर अपनी ओजस्विनी वाणी में प्रमादी जिनाराधक समाज को जगाते हैं । डंके की चोट पर वे कहते हैं कि :
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