Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 73
________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • उपादेय हैं । सिद्धचक्र अर्थात् चार प्रकार की आराधनायुक्त पांचों गुरुपद पर प्रतिष्ठित, सहज, जन्म मरणादि रहित, अकृत्रिम आत्मस्वरूप से सहज आत्मस्वरूप है । अतएव सिद्धचक्र मंत्र का सार ‘सहजात्म स्वरूप परमगुरु' यह मंत्र है । चारों आराधनायुक्त पांच पद परमगुरु कहे जाते हैं । वे परमगुरु सहजात्म स्वरूप हैं । प्रत्युत् जन्म-मरणयुक्त कृत्रिम देहस्वरूप नहीं ही हैं । इसलिए नवपद या पांच पद के सार रूप यह 'सहजात्म स्वरूप परमगुरु' भक्ति मंत्र है, जिसकी आराधना परमकृपाळुदेव ने करके आत्मसमाधि दशा प्राप्त की थी । अहंग्रह अथवा भक्तिप्रधान उभय निरालंबन सालंबन ध्यान के प्रकारों में से अपनी योग्यतानुसार एक मंत्र का निष्ठापूर्वक आराधन करने से आत्मशुद्धि और सिद्धि अवश्यंभावी है । अतः बार बार मंत्र बदलते रहने से और अनेक मंत्रों की आराधना से शक्ति का संगठित एवं एकाग्र होना कठिन पड़ता है । इस तथ्य का स्वीकार कर आपको जो उचित प्रतीत हो उस मंत्र में एकनिष्ठ बनो यह अधिक हितकर होगा । यदि शुष्कता एवं अभिमान से बच सको तो 'सोऽहं' का ध्यान कर सकते । उससे घंटनाद जुड़ेगा । नादलय से सुधारस धारा प्रकट होगी । उस धारा से मन पवन सहज में ही स्थिर होगा । उस स्थिरता से चैतन्यज्योति झिलमिल झगमगायेगी । उस ज्योति से चक्रभेदन षट्चक्रादि जो कमलाकार वे उद्घाटित होते जायेंगे (खुलते जायेंगे) और उससे दिव्य सुगंधी फैलेगी । प्रति चक्र में ध्यान, धारणा और समाध स्थिति से रहने पर पुरुष संस्थान ऐसे लोक के अर्थात् विश्व के उन उन विभागों के दर्शन होते जायेंगे, इस प्रकार समग्र सर्वांग ध्यान से विश्वदर्शन आत्मा में होगा । अंत में विश्वदर्शन के प्रत्याहार से आत्मसाक्षात्कार होगा । उस पर से 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई' यह आचारांग कथन सिद्ध होगा । सुज्ञेषु कि बहुना ? २४ (पत्रांक- १४३ ) परमयोगेनान्ते परमयोगी का महाप्रयाण उपसंहार-अंतिमा से पूर्व, स्थल मर्यादावश, जैनयोगमार्ग के इस योगीन्द्र परमयोगी के ऐसे थोड़ेसे निष्कर्षों-अवतरण उद्धरणों परिचय - उल्लेखों के अंत में, उनके १९७० ईस्वी में हुए अभूतपूर्व ऐसे समाधिमरण का निर्देश कर के विराम लेंगे । उनका ५७ वर्ष की देहायु का यह समाधिमरण असामान्य था, 'योगेनान्ते तनुत्यजाम्' के न्याय से इस काल की विलक्षण योगिक घटनारूप था : श्रीमद् राजचंद्र आश्रम - रत्नकूट हंपी (कर्णाटक) की वह छोटी-सी नीरव गुफा... उसमें काष्ठपाट पर बिना किसी (वस्त्र) शय्या पर, अट्ठम के चौविहार उपवासपूर्वक, सतत आत्मभान सह देह को कायोत्सर्ग में रखकर सोये हुए ये योगीन्द्र.....! कार्तिक शुक्ला दूज के अमृतवेला निकटस्थ प्रभात की, महीनों पूर्व गुप्त रूप से पूर्वसूचित ( निर्धारित) पल पर, उन्होंने परम प्रसन्नता एवं आत्मा की सतत सजगतापूर्वक देह को - देह के सर्व योगों को • संकुचित किया - स्वयं में शमित किया और फिर... फिर किस प्रकार देहत्याग कर महाप्रयाण किया इसकी कल्पना कोई कर सकेगा ? — २४ श्री सहजानंद पत्रावली : 143 + "आत्मदर्शन-विश्वदर्शन" परमगुरु प्रवचनमाला सी.डी. (53)

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