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. श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
जैन योगसाधना निष्पन्न इस परमयोगी के कुछ साधकोपयोगी विशेष निष्कर्ष
साधकों, मुनिजनों के मार्गदर्शन हेतु श्री सहजानंदघनजी प्रत्यक्ष एवं पत्रों के द्वारा अथाह परिश्रम उठाने में आनंदानुभव करते । विनयशील एवं लघुताधारी यह महायोगी गुणवानों के प्रति पूज्यभाव रखते । बहनों और चारित्रात्मा साध्वीजीओं को वे 'मातेश्वरी' शब्द से संबोधित कर अपने आप को बालक के रूप में दर्शित करते । अनेक मुनिजनों को उन्होंने प्रदान किये हुए जैनयोग के और रत्नत्रयी की साधना के मार्गदर्शन उनकी स्वयं की जैनयोग की अनुभूतिपूर्ण प्रयोग साधना से निष्पन्न हुए बने रहते । उनके ऐसे अनेक साधना-उपयोगी मार्गदर्शनों-निष्कर्षों में से थोड़े विशेष यहाँ प्रस्तुत करना सर्व जैनयोग साधकों और सर्व सामान्य आराधकों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होंगे । उनके ये पत्रनिष्कर्ष प्रधानतः योग्यतासभर ऐसे मुनिश्री आनंदघनविजयजी (वर्तमान के) और गौणतः उपा. लब्धिमुनिजी, गणिवर्य बुद्धिमुनिजी, संतबालजी, सुलोचन-विजयजी, जयानंदमुनिजी, महानंदविजयजी, माणेकविजयजी, सूर्यसागरजी, देवेन्द्रसागरजी, पुण्यसागरजी, भद्रसागरजी, निरंजनविजयजी, गणिवर्य प्रेममुनिजी, स्वामी ऋषभदासजी सिद्धपुत्र, आदि स्वनामधन्य, सुयोग्य, जिज्ञासातृषातुर पूज्य ऐसे चारित्रात्मा मुनिवर्यों के प्रति लिखे हुए होने के कारण उनका सविशेष महत्त्व है। भारत कोकिला साध्वीश्री विचक्षणाश्रीजी आदि उनके साध्वीजीओं के अतिरिक्त स्व. विदषी साध्वीश्री निर्मलाश्रीजी एवं स्व. प्रसन्नात्मा साध्वीश्री मृगावतीश्रीने भी इस लेखक के द्वारा उनके साथ आत्मसाधनार्थ महत्त्वपूर्ण जैनयोग साधना विषयक पत्रव्यवहार किया था जिनमें से कुछ उपलब्ध प्रकाशित भी हो
विविध विषयों के इन उपयोगी, उपादेय, उपकारक पत्र-निष्कर्षों का अनुशीलन करें:
•आत्म-ध्यान का प्रबल निमित्त जिन-प्रतिमा : "जैन प्रतिमा के प्रति श्रद्धान्वित हुए बिना संदेहशील रहने से तीनकाल में भी सम्यग्दर्शन की उपलब्धि नहीं होती और पुण्यानुबंधी पुण्य के बिना सच्चा मोक्षमार्ग उपलब्ध होना कालदोष के प्रभाव से कठिन बन गया है।" • ज्ञानावतार श्रीमद् राजचंद्रजी की सद्गुरुपद पर शरणता :
"अनन्य आत्मशरणप्रदा, सद्गुरु राजविदेह,
पराभक्तिवश चरण में, धरं आत्मबलि एह ।" "इस काल में प.पू. कृपाळुदेव श्रीमद् राजचंद्रजी एक अद्वितीय पुरुष हो गए । उनके साहित्य को कहीं पर से प्राप्त करके पढ़ें और उनका प्रार्थना आदि का जो क्रम है वह भी अपनाएँ ।०००१९
(विशेष दृष्टव्य श्री सहजानंदघनजी लिखित "उपास्यपदे उपदेयता ।")
१९ (श्री सहजानंद पत्रावली : 442-443)
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