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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
और शक्कर का)... वैसे भी योगी लोग अपनी एक अलग ही मस्ती में जीते हैं। उनकी जीवनशैली अपनी तरह की ( अनूठी और मौलिक) होती है। वे परम्पराओं का अनुसरण नहीं करते, वरन् परम्पराएं उनसे बनती हैं । साधना कैसे की जाए, उसके क्या मापदंड होते हैं, किसी को यह बात सीखनी हो तो इन योगीराज से सीखी जा सकती हैं।
"अध्यात्मजगत् के एक और महापुरुष श्रीमद् राजचंद्र का सहजानंदजी पर गहरा प्रभाव था । वे उनका गुरुतुल्य सम्मान रखते थे । मेरे हृदय में भी उनके प्रति आदर-सम्मान है । मैंने उन्हें 'प्रकाश-पुरुष' के रूप में जाना है। उनके पद और पत्र आज भी हज़ारों मुमुक्षुओं के अन्तर्मन में अध्यात्म की लौ जगाने में प्रकाश-किरण का काम करते हैं।
"साहित्य वाचस्पति श्री भंवरलालजी नाहटा ने सहजानंदजी की अनमोल साहित्यिक-सेवा की है, उन्होंने उन पर हज़ारों पेज लिखे हैं। प्रतापजी टोलियाने सहजानंदजी के प्रवचनों को अध्यात्मप्रेमियों तक पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाई । मैं मानता हूँ कि मैंने उन पर कुछ कहने की कोशिश अवश्य की है, पर योगियों की योग-साधना हमारे हर कथन से ऊपर हुआ करती है।"१७
जैन योग के वर्तमान के इस प्रयोगवीर परमयोगी ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्षों में विस्मृत ऐसे जैन योग-ध्यानमार्ग की कर्णाटक के हम्पी की गिरि गुफाओं में जो प्रसिद्धिविहीन, नीरव, गुप्त एसी धुनि रमाई, उसका प्रकाश उपर्युक्त अपरिचित साधक की भाँति अन्य अनेक मर्मी पारखुओं तक भी पहुँचा । इस अवधूत योगी को सदेह से नहीं, विदेह से ही मिलकर-पहचानकर गुजरात के अवधूत संत कविश्री (सांई) मकरंद दवे ने ठीक ही लिखा है कि, __भारत में आज जब अध्यात्म का, सच्चे अध्यात्म का अकाल दिखाई देता है तब हंपी के खंडहरों में मुझे नूतन प्रकाश दिखाई दे रहा है ।"१८
ऐसे अपरिचित साधना-पारखी जनों द्वारा दूर से भी अपनी अंतर्दृष्टि के द्वारा सहजानंदघनजी जैसे वर्तमान के प्रयोगवीर परमयोगी का और उनकी साधना का जो दर्शन हुआ है वह चिंतनीय और उपादेय है। वर्तमानकाल में जब जिनोक्त जैन योगमार्ग बहुधा विस्मृत हुआ है ओर अन्य परंपराओं के (सत्-असत् ) योग-ध्यान पंथ फैले जा रहे हैं, तब जिनमार्ग की आराधना व पुनरुद्धार करने ऐसे योगदृष्टाओं के अध्ययन-अनुशीलन पश्चात् अनुसरण करना हितप्रद हो सकता है । कलिकाल के महान उपकारक जैन योगाचार्य सर्वश्री हरिभद्रसूरि, समन्तभद्र, शुभचन्द्राचार्य, हेमचंद्राचार्य, आनंदघनजी, यशोविजयजी, चिदानंदजी, देवचन्द्रजी, बुद्धिसागरसूरि, केशरसूरि, शान्तिसूरि आदि अनेकों के जैन योग के क्षेत्र में प्रदान की भाँति वर्तमान के श्रीमद् राजचंद्रजी-सहजानंदघनजी जैसे अध्यात्मयोगियों के प्रदान का भी संशोधन मूल्यांकन होना चाहिये । जैन परंपरा के हितमें ही वह होगा।
इतने खास उल्लेख के साथ इस शोधनिबंध आलेख के समापन पर आयेंगे। १७ सहजानंद सुधा की-2003 की तृतीयावृत्ति की भूमिका । १८ दक्षिणापथकी साधना यात्रा : (1993) : पृ. 11 : यह लेखक ।
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