________________
44
०००० योगीन्द्र युगप्रधान सत्गुरु श्री सहजानंदघन स्वामी ऐसी ही एकमात्र महान् विभूति हैं जिनकी आत्मसाधना सौगन्धिक दिव्य वृष्टि की सिद्धि से अभिभूत है, जो प्रशस्त आत्मसाक्षात्कारमय अलौकिक पथ के पंथी हैं । सतत् जागरुक अभेद चिन्तन की अन्तर्दृष्टि ने जिनके अनुराग व विराग के अन्तराल को समाहित कर लिया है ।"
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा
कैसे कैसे, कितने कितने गुणों और विशेषताओं से युक्त हैं यह आत्मसाक्षात्कारमय अलौकिक पथ के पंथी ?
अघाते नहीं थकते नहीं उपर्युक्त खोजी दर्शक उनका बहिरांतर वर्णन करने से
"सम्यगदृष्टि, स्थितप्रज्ञ, आध्यात्मिक व भौतिक अस्तित्व की विषम विभिन्नताओं से परे सद्ध्यानाभ्यासी महान विचारक, रीति-नीति- परम्परा-धर्म-जाति प्रभावित विभिन्न सामाजिक मान्यताओं व चिन्तन परम्पराओं से पराभूत गर्हित ज्ञान विज्ञान व दर्शन की जटिलताओं के मर्मज्ञ, प्रमाद आलस्य व क्षिप्रकारिता जैसे मानवीय दोषों से रहित, प्रमत्त सैद्धान्तिक तार्किक जाल की प्रणाली से सर्वथा मुक्त, मानापमान रहित, देव प्रकृति तुल्य गुरुदेव अविस्मरणीय योग्य दर्शन हैं । अमरत्व की दीपशिखा हैं । पवित्रता की मूर्ति हैं । ज्ञान की अविरल अमृतमयी वारिधारा से ओतप्रोत हैं । आपका संस्पर्श, आपका साहचर्य, वासनालिप्त सर्वसाधारण विकृत मानव धातु के लिए पारसमणि है । मात्र दर्शन ही मुक्तिपथ है । निर्धूम अग्निशिखा के सदृश सतत ज्वलित ज्ञान के अप्रतिम तेज की आभा से आलोकित (उनकी ) वाणी के पवित्र मधुर उद्गार मोह- तिमिर नाशक हैं। जड़ता, दीनता व मानसिक दुर्बलताएँ, तथा भय, क्रोध, लोभ व मिथ्या अभिमान प्रसूत सांसारिक वासनाएँ जिनके तपः पूत सदुपदेश से विनष्ट हो जाती हैं, जिनके जीवन का सदाचरण श्लाध्य है, जिनका दर्शन श्रेय, प्रेय व शिवत्व की महिमा से मंडित है, ऐसे अविस्मरणीय मानवीय महान विभूति का दर्शन प्रार्थनीय है । उनके सदुपदेश श्राव्य हैं, साहचर्य अभिप्रेत है। विचारक हो या समाज-सुधारक, श्रद्धालु हो या भक्त, दार्शनिक हो या विद्वान्, चिंतक हो या मनीषी, रागी हो या विरागी, भोगी हो या मुक्त, सभी सामान्य व असामान्य व्यक्तियों के लिए परमादरणीय, परमाराध्य - सर्वविदित विश्रुत स्वामी श्री सहजानंदघनजी एक साथ ही योगी, साधक व विचारक, रागद्वेषरहित आचार्य गुरु व सद्धर्म-प्रचारक विभूति हैं ।"
—
फिर यह खोजी दर्शक इस महा-विभूति की, आज के 'क्रान्ति क्रान्ति' चिल्लानेवालों के लिये चिंतनीय ऐसी युगचिन्तना, युगावश्यक सर्वादरणीय उपयोगिता दर्शाते हैं
:
(33)
" ॥ ००० वस्तुतः क्रान्ति का क्षेत्र बाहर नहीं, भीतर है । वह आत्मकेन्द्रित है, भौतिक नहीं । ध्वंसात्मक भौतिक क्रान्ति शान्ति नहीं प्रदान कर सकती, प्रत्युत् आध्यात्मिक क्रान्ति ही सृजनात्मक शांति को जन्म दे सकती है। अतः विचारों के इस विषम युग में आत्मनिष्ठायुक्त स्थिर अव्यवसायात्मिका प्रज्ञा की आवश्यकता है और यह प्रज्ञा बिना ऐसे दिव्य दृष्टि और पारदर्शी चेतना के सान्निध्य से प्राप्त नहीं हो सकती । परमपूज्य युगप्रवर आचार्यपाद गुरुदेव की वाणी में ओज है प्रसाद और माधुर्य भी । अपनी साधना, तपस्या तथा चिन्तन से आपने अपने विचारों को