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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
और उनके पथानुसारी योगीन्द्र मुनिवर श्री सहजानंदघनजी-भद्रमुनि (समझसार, नियमसार रहस्य, अनुभूति की आवाज़, आत्मसाक्षात्कार का अनुभवक्रम, आनंदघनचोवीसी-सार्थ, सहजानंद विलास, पत्रसुधा, पत्रावली, सहजानंद सुधा, उपास्यपदे उपादेयता इत्यादि) का साहित्य प्रायः अभी संशोधन से पर रहा है। उनका यह साहित्य जैन योगमार्ग को समझने और वर्तमान काल में आराधन करने में प्रेरक, उपकारक एवं उपादेय बनने में सक्षम है। यदि किसी भी प्रकार के अभिनिवेश या पूर्वग्रह के बिना उनके अंतराशय को भी महायोगी आनंदघनजी जैसे 'अतिशय गंभीर अपार' आशयवत् उन्मुक्त मनसे समझा जाय तो ! पूर्वोक्त अनेक वर्तमान मुनिजनों को दिए गए जैन योग-ध्यान के मार्गदर्शनों के अनुसंधान में एक दो और प्रयोगपूर्ण ध्यानानुभवों को उन्होंने विविध भूमिका के जैन साधनामार्ग के साधकों के प्रति दर्शित किए हैं, वे दृष्टव्य हैं : शुभाशुभ की जंगल-झाड़ी के अंधेरे के पार ध्यानाग्नि
"हे अंतरात्मा ! तू स्थिरदृष्टि से भीतर में दृष्टि कर । जो अंधेरा दिखता है वह कार्मण शरीर है। उस पर तेरी दृष्टि को केन्द्रित कर । उससे ध्यानाग्नि प्रकट होगी और वह दृष्टि एवं दृष्टा के बीच रहे हुए पर्दे को जलाकर के खाक कर देगी । वैसा होने पर तू तेरी ही आँख से तुझे प्रत्यक्ष देखेगाजानेगा । देख-जानकर उसमें ही तेरी दर्शन-ज्ञान चेतना स्थिर हो जाएगी । तब तू आनंद की गंगा में तद्रूप हो जाएगा।
__ "मानसिक जंगल-झाड़ी को भेदकर के तू निर्भंग शुद्ध भाव से मुक्त मैदान में आ, वहाँ से ही तेरा राजपथ सरेआम खुल्ला दिखाई देगा, जिसके अंत में तेरा शिवनगर स्थित है । तू शुभाशुभ की जंगल-झाड़ी में उलझकर क्यों देरी कर रहा है ?" ॐ "जिनस्वरूप होकर जिन को आराधे,
वे सही जिनवर होवे ॥"०००१३ सम्यग् साधना की जैन योगमार्ग की समग्र दृष्टि':
"अपने ही चैतन्य का तथा प्रकार से परिणमन-यही साकार उपासना श्रेणी का साध्यबिंदु है और वही सत्यसधा कहा जाता है। हृदय-मंदिर से सहस्त्रदलकमल में उसकी प्रतिष्ठा करके लक्ष्य-वेधी धनष्य की भांति चित्तवृत्ति-प्रवाह का अनसंधान टिकाये रखना वही पराभक्ति अथवा प्रेमलक्षणाभक्ति कही जाती है । उपर्युक्त अनुसंधान को ही शरण कहते हैं । शर = तीर । शरणबल से स्मरणबल टिकता है। कार्यकारण के न्याय से शरण और स्मरण की अखंडता सिद्ध होने पर, आत्मप्रदेश में सर्वांग चैतन्य-चांदनी फैलकर सर्वांग आत्मदर्शन और देहदर्शन भिन्न-भिन्न रूप में दृष्टिगत होते हैं और आत्मा में परमात्मा की तस्वीर विलीन हो जाती है । आत्मा-परमात्मा की यह अभेदता ही पराभक्ति की अंतिम हद है। वही वास्तविक उपादान-सापेक्ष सम्यग्दर्शन का स्वरूप है।
१३ पत्रसुधा : 256 साध्वीश्री विचक्षणाश्रीजी को श्री सहजानंदघनजी पृ. 245
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