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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
जिनमुद्रा, जिनबिंब और जिनवाणी के, आत्मध्यान में पहुंचानेवाले, वर्तमान काल के भविजनों को तारनेवाले इन दो समर्थ आलंबनों की अनुमोदना करते हुए यह वर्तमान मुनिवर अपने स्वरचित जिनस्तवन में उल्लसित भाव से गाते हैं :
__ "अवलम्बन हितकारो, प्रभुजी तेरो अवलंबन हितकारो...
पावत निजगुण तुम दर्शन से, ध्यान समाधि अपारो प्रगटत पूज्यदशा पूजन से, आत्मस्वरूप निस्तारो,
प्रभुजी ! तेरो"११ जिनप्रतिमा की महिमा
जिनप्रतिमा ध्यान की ऐसी निजगुण प्रकट करानेवाली, आत्मध्यान श्रेणी का उदय करानेवाली महिमा का स्वल्प चिंतन करके रूपस्थ ध्यान के पश्चात् 'रूपातीत' ध्यान-स्वरूप का संकेत भर करते हुए उपर्युक्त रहस्य का ही तात्पर्य स्पष्ट होता है :रूपातीत ध्यान और ध्येय : "चिदानंद रूपं. नमो वीतरागं"
"अमूर्त, चिदानंदस्वरूप, निरंजन और सिद्ध ऐसे परमात्मारूपी ध्येय रूपातीत ध्येय है । ऐसे अरूपी परमात्मा का सतत ध्यान करनेवाला योगी ग्राह्य-ग्राहक भाव से रहित ऐसा तन्मयत्व संप्राप्त करता है । उनका अनन्यभाव से शरण लेनेवाला उसमें ही लीन होता है और ध्याता-ध्यान इन दोनों का अभाव होने पर ध्येय के साथ ही एकरूप बन जाता है । ऐसा जो समरस भाव उसका नाम ही आत्मा और परमात्मा का एकीकरण है, क्योंकि, उस समय आत्मा लेशमात्र भी पृथकत्व के बिना परमात्मा में लीन होती है । (१०/१४) ___ "इस प्रकार शरीरादि आलंबन, रूपस्थ ध्यान-ध्येय के द्वारा प्रारंभ करके, निरालंबी ध्यानध्याता, ध्येय के साथ एकरूप बनकर निरालंब तत्त्व प्राप्त करता है और इस तरह चार प्रकार के (पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, रूपातीत) ध्यानामृत में मग्न बना हुआ मुनिमन जगत के तत्त्व का साक्षात्कार कर, शुद्ध आत्मस्वरूप प्राप्त करता है।" (१०/५-६)०००१२ तीर्थंकरों के परवर्ती जैन योगी
कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य का यह सरलतम निष्कर्ष जैन योगमार्ग के आत्मानुभवआत्मस्वरूप प्राप्ति के लक्ष्य को विशदता से स्पष्ट करता है।
जैन ध्यानमार्ग का अभिगम, उनके पूर्ववर्ती-परवर्ति काल में आचार्य भद्रबाहु, कुंदकुंदाचार्य, पूज्यपाद आदि तथा श्री हरिभद्रसूरि (योगशतक, योगदृष्टि-समुच्चयादि), श्री शुभचंद्राचार्य (ज्ञानार्णव), महायोगी आनंदघनजी (चोबीसी और पद्यरत्नावली), उपाध्याय यशोविजयजी, योगनिष्ठ श्री बुद्धिसागरजी-केसरसूरीश्वरजी-शांतिसूरीश्वरजी एवं अनेक उल्लिखित-अनुल्लिखित जैनयोगी मुनिवरों आचार्यों ने अनेकरूप से व्यक्त किया है। इस श्रृंखला में वर्तमान में गुप्तरूप से आत्मध्यानस्थ रहे हुए श्रीमद् राजचंद्रजी ( श्री आत्मसिद्धिशास्त्र, यमनियम-अपूर्व अवसरादि विविध पद, वचनामृत) ११ 'श्री सहजानंद सुधा' : पृ. 34 १२ 'योगशास्त्र' (पूर्वोक्त): पृ. 92
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