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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
"वह सत्यसुधा दरसावहिंगे, चतुरांगल व्है दृग से, मिल है । रसदेव निरंजन को पीवही, गही जोग जुगोजुग सो जीवहीं ॥"
( श्रीमद्जी रचित)
इस काव्य का तात्पर्यार्थ वही है। आँख और सहस्त्रदल कमल के बीच चार अंगुल का अंतर है । उस कमल की कर्णिका में चैतन्य की साकारमुद्रा यही सत्यसुधा है, वही अपना उपादान है । जिसकी वह आकृति खिंची गई है वह बाह्य तत्त्व निमित्त कारण मात्र है । उनकी आत्मा में जितने अंशों में आत्मवैभव विकसित हुआ हो उतने अंशों में साधकीय उपादान कारणत्व विकसित होता है और कार्यान्वित होता है । अतएव जिसका निमित्त कारण सर्वथा आत्मवैभव संपन्न हो उसका ही अवलंबन लेना चाहिये । उसमें ही परमात्मबुद्धि होनी चाहिये, यह रहस्यार्थ है । ऐसे भक्तात्मा चिंतन और आचरण विशुद्ध हो सकता है, अतएव भक्ति, ज्ञान और योगसाधना का त्रिवेणी संगम साधा जाता है, जिससे वैसे साधक को भक्ति - ज्ञान शून्य केवल योग-साधना करना आवश्यक नहीं है । दृष्टि, विचार और आचरणशुद्धि का नाम ही भक्ति, ज्ञान और योग है और उसी परिणमन से "सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः " है । "पराभक्ति के बिना ज्ञान और आचरण विशुद्ध रखना दुर्लभ है, इसी बात का दृष्टांत आर. प्रस्तुत कर रहे हैं न ? अतएव आप धन्य हैं, क्योंकि निज चैतन्यदर्पण में परमकृपाळु की तस्वीर अंकित कर सके हैं, ॐ”०००१४
जैनमार्ग के परमोपकारक
जैनविद्या और साधनामार्ग में प्रथम प्रत्यक्ष उपकारक रहे ऐसे योगनिष्ठ आ. श्री केसरसूरीश्वर के शिष्य आ. श्री भुवनरत्नसूरि और महाप्राज्ञ पद्मभूषण प्रज्ञाचक्षु पंडितश्री सुखलालजी एवं परोक्ष रहे दो परम उपास्य महायोगी श्री आनंदघनजी और आजन्मज्ञानी श्रीमद् राजचन्द्रजी कि जिनकी अंगुलि पकड़कर इस अल्पात्मा लेखक ने अंतर्यात्रा आरम्भ की थी, उन दो परमपुरुषों के अपार आत्मवैभव का स्पष्ट और सविशेष परिचय एवं दर्शन यहाँ संप्राप्त हुआ । इस काल में ऐसा आंतरिक परिचय योगीन्द्र मुनिश्री सहजानंदघनजी (भद्रमुनि) ने करवाया, जिनकी जैन योगमार्ग की मौन - गुप्त - प्रसिद्धि विहीन साधना असामान्य रही है । युगप्रधानपद प्राप्त होते हुए भी स्वयं को गौण, लघु बनाकर, श्रीमद्जी जैसों के आत्मवैभव के ध्यानानुसरण द्वारा 'स्वयं में स्थित' बनने प्रेरित करनेवाले इन परमपुरुष का उपकार इस अल्पज्ञ पर अपार रहा । प्रत्यक्ष परिचय और सत्संग-संपर्क तो रहा केवल पांच माह का और वह भी बेंगलोर से हम्पी की कंदराओं के बीच १९७० में । परंतु उनका वह स्वल्प संग कालखंड-काल की पगदंडी पर जनमो-जनम का आतमरंग लगाकर गया - 'क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णव तरणे नौका' की भाँति ।
१४ 'दक्षिणापथ की साधनायात्रा' (पृ. 32-33) एवं भक्तिकर्तव्य (पृ. VIII, IX )
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