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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
समवसरण का अर्हद्-ध्यान :
"अर्हत् भगवान के रूप के अवलंबन से किया हुआ ध्यान 'रूपस्थ ध्येय' का ध्यान कहा जाता है । वे कि जिन्हें मोक्षश्री संप्राप्त हुई है, जिनके अखिल कर्म नष्ट हो चुके हैं, जिन्हें चार मुख हैं, जो समस्त भुवनों को अभयदान देनेवाले हैं, जिन्हें चंद्रमंडलवत् कांतियुक्त तीन छत्र हैं, जिन्होंने अपने स्फुरित तेज के विस्तार से सूर्य को घूमिल कर दिया है, जिनकी साम्राज्यसंपत्ति का घोष दिव्य दुंदुभिओं के द्वारा हो रहा है, जो गुञ्जन कर रहे भ्रमरों से मुखरित अशोकवृक्ष के नीचे सिंहासनस्थ हैं, जिनके दोनों बाजु चामर ढल रहे हैं, जिनके पादों के नख सुरासुर के मुकुटमणियों से प्रतिबिंबित हो रहे हैं, जिन की सभा की धरती दिव्य पुष्पों के समूह से आवृत्त हो गई है, जिनकी मधुर आवाज़ का पान मृगकुल ऊर्ध्व कंठ से कर रहे हैं, जिनके समीप हाथी, सिंह इत्यादि प्राणी अपना सहज स्वाभाविक वैर भलाकर खडे हैं, जिनके मनुष्य एवं तिर्यंचों का मेला लगा है, जिन में सर्व अतिशय अर्थात् विभूतियाँ, विद्यमान हैं और जो केवलज्ञान से प्रकाशित हैं ॥" (९/१७)०००६
ऐसे जिन-स्वरूप माहात्म्य की श्रीमद् राजचंद्रजी भी "अचिंत्य तुज माहात्म्य का नहीं प्रफुल्लित भाव" कहकर स्वयं आलोचना युक्त स्व-वेदना व्यक्त करते हैं कि एसी जिन-महिमा के प्रति हमारा भाव प्रफुल्लित नहीं हुआ । तो दूसरी ओर फिर इस जिनरूप के बाह्यदर्शन से आगे जाकर उनकी भीतरी अपार आत्मसंपदा की ओर भी वे यह कह कर संकेत करते हैं कि -
"जो जिनदेह प्रमाण अरु, समोसरणादि सिद्धि । जिनस्वरूप माने यही, बहलाये निजबुद्धि ॥" (श्री आत्मसिद्धिशास्त्र : सप्तभाषी आत्मसिद्धि : गाथा-२५)
अस्तु । योगमुद्रामय जिनप्रतिमा-ध्यान और ध्याता :
आगे बढ़ते हुए श्री हेमचंद्राचार्य जिनप्रतिमा-ध्याता के रूपस्थ ध्यान का वर्णन करते हैं :
"उसी प्रकार जिनेन्द्र की प्रतिमा के रूप का ध्यान करनेवाला भी रूपस्थ-ध्याता कहा जायेगा, जैसे कि रागद्वेष, महामोह इत्यादि विकारों से अकलंकित, शांत, दांत, मनोहर, सर्व लक्षणों से युक्त अन्य तीथिकों को भान भी नहीं वैसी योगमुद्रा से शोभायुक्त तथा जिसकी आँखों से अद्भुत एवं विपुल आनंदप्रवाह बरस रहा है वैसा, इत्यादि ।" (९/८-१०)००००
योग शास्त्र : श्री पुंजाभाई जैन ग्रंथमाला : गू.वि. : पृ. 90 (आवृत्ति 1938) योग शास्त्र : (पूर्वोक्त) (पृ. 90 - 91 - 92)
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