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"ज्ञान, भक्ति और योग तीनों के समन्वय रूप से प्ररूपण है । योग अर्थात् चेतन-चेतना का मिलन । वही भक्ति और ज्ञाननिष्ठा । फिर भी निमित्तकारणरूप त्रियोग जप, प्रभुमूर्ति और आत्मविचार आवश्यक है 100०२
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
" द्रव्यमन में कैसी भी कल्पना आये परंतु वह आत्मा से भिन्न और मैं भिन्न ऐसा आत्मभाव रखकर तद् तद् विकल्पों के प्रति साक्षी रहें । सिद्धचक्रादि का जो जापक्रम है उसे पकड़े हुए रखें... अपने आप आत्मस्थिरता होगी |००० ३
जाप, जिनप्रतिमा और आत्मविचार आदि से निमित्तकारणरूप साधन भी जिनाज्ञा एवं सद्गुरू निश्रापूर्वक आराधन करने की जैन योग साधना की विशेषता और महत्ता है। जैन योग मार्ग, सुस्पष्ट ऐसे आत्मसिद्धि, आत्मभान, वीतरागता, सिद्धदशा, मोक्षप्राप्ति के लक्ष्य को सतत केन्द्रस्थान पर रखकर चलता है । वहाँ स्वच्छन्द अथवा निजमति कल्पना को अवकाश नहीं है । वहाँ आलंबन है - सद्गुरु आज्ञा एवं जिनदशा का परम विशुद्ध आत्मस्वरूपमय जिनदशा का ध्यान :
"सर्व जीव हैं सिद्ध सम, व्यक्त समझसों होय ।
सद्गुरु आज्ञा जिन-दशा, निमित्त कारण दोय ॥ ४
उपर्युक्त चार ध्यानों में से जिनदशा के लक्ष्य से, स्वरूप प्राप्ति के लक्ष्य से, जिनप्रतिमा के रूपस्थ ध्यान और सिद्धचक्र - नमस्कार महामंत्र के पदस्थ ध्यान के द्वारा (जो कि श्वासानुसंधाननादानुसंधानपूर्वक 'आहत' से 'अनाहत' नाद तक का है) जैन योगमार्ग का अनुसरण होता है । केवल संयम के हेतु से साधक की सर्व योग-प्रवर्तना ( मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ) होती हैं :"संयम - हेतु से योगप्रवर्तना, स्वरूपलक्ष्य से जिनाज्ञा आधीन रे ।
वह भी क्षण क्षण क्षीयमान स्थिति में, अंत में हो निजस्वरूप में लीन रे - अपूर्व अवसर ०००५
अंत में निजस्वरूप में, निजदशा में, स्वात्मा में वह योग-ध्याता लीन होता है। प्रारंभ में जिनदशा के लक्ष्य को समीप रखने का, जिनप्रतिमा के साकार - सालंबन - रूपस्थ ध्यान को धरने का यह अद्भुत फल है, परिणाम है। जिनदशा - जिनप्रतिमा ध्यान की ऐसी महती महिमा है । अर्हत् भगवंत के रूप का अवलंबन लेकर किये हुए ऐसे रूपस्थ ध्यान की महिमा का वर्णन करते हु कलिकालसर्वज्ञ योगीन्द्र हेमचंद्राचार्य महाराज थकते नहीं हैं । जिनेश्वर भगवंत के समवसरण का प्रथम कैसा अद्भुत ध्यान उन्होंने वर्णित किया है उसका दर्शन करें :
१. योगशास्त्र : अष्टम् प्रकाश : कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य : पृ. ३, ४ ( 1969 आवृत्ति ) २,३ पत्रसुधा : 143 + 144 मुनिश्री पुण्यविजयजी को पत्र
४
आत्मसिद्धि शास्त्र / सप्तभाषी आत्मसिद्धि 135 : श्रीमद् राजचंद्रजी
५ "परमपद प्राप्ति की भावना : अपूर्व अवसर " 5 : श्रीमद् राजचंद्रजी
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