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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
परिचय झांकी - अवधूत आत्मयोगी की :
महत् पुरुषों का देहधारण उनके स्वयं के आत्मसिद्धि क्रमारोहण के उद्देश्य के उपरान्त जगत् के जीवों के कल्याण के लिए भी होता है । कई महापुरुषों की जीवनचर्यां, उनकी लघुता, अहंशून्यता एवं केवल आत्मलक्षिता के कारण अप्रकट, अज्ञात एवं गुप्त रहती है । इस काल में ऐसे ही सत्पुरुष थे 'भद्रमुनि' दीक्षा- नामधारी एवं अद्वितीय स्वपुरुषार्थ से आत्मज्ञान संप्राप्त अवधूत योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानंदघनजी महाराज । न तो उन्होंने अपने जीवन के सम्बन्ध में विशेष कुछ प्रतिपादित या प्रचारित किया है, न उन्होंने औरों को भी इस कार्य हेतु लेशमात्र प्रेरित किया है । इतना ही नहीं, उनके सम्बन्ध में लिखने और प्रसिद्ध करनेवालोंको उन्होंने रोका भी है !! " हीरा मुख से ना कहे लाख हमारा मोल" वाली उक्ति से भी आगे बढ़कर यहाँ तो पारखीजनों को भी अपनी प्रसिद्धि या प्रचार के सम्बन्ध में रोकने की उनकी वृत्ति और प्रवृत्ति परिचायक है उनकी लघुता में छिपी महानता की !
उनके अखंड साधनारत अज्ञात गुप्त जीवन की अनेक में से एक घटना इस बात का महत्त्वपूर्ण संकेत करती है । पूर्व प्रकरण अनुसार एक बार किसी अपरिचित साधक-संत ने उनके जीवन से अभिभूत होकर, उनके सम्बन्ध में विशेष जानने हेतु उनका नाम - ठाम जाति-धर्मादि परिचय पूछा । आप कल्पना कर सकते हैं उन्होंने क्या प्रत्युत्तर दिया होगा ? उन्होंने अपनी अंतरात्मावस्था का इंगित करनेवाली यह अद्भुत मर्म वाणी अभिव्यक्त की :
"नाम सहजानंद मेरा नाम सहजानंद ।
अगम देश अलख - नगर - वासी मैं निर्द्वन्द्व ॥
परिचय यही अल्प मेरा, तनका तनसे पूछ ।
तन-परिचय जड़ ही है सब, क्यों मरोड़े मूँछ ?”
अपने बाह्य परिचय बाह्य जीवन से नितान्त उदासीन ऐसे इस महापुरुष का परिचय हम दें भी क्या ? बाह्य जानकारी अल्प लभ्य है और आंतरिक असम्भव !!
यदि उनकी ही अनुग्रहाज्ञा हुई तो यह असम्भव भी सम्भव हो पायेगा और हम उनके बाह्यांतर जीवन की कुछ परिचय-झांकी हमारी 'दक्षिणापथ की साधना यात्रा' के संधानपंथ में दे पायेंगे । तब तक के लिये इस अवधूत आत्मयोगी द्वारा प्रज्वलित सभी के आत्मदीपों को अभिवन्दना ।
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नाम...