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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
| प्रकरण-६ Chapter-6 | | साधना-सद्गुरुदेव श्री सहजानंदघनजी की सम्यग्दृष्टि में सम्यग् साधना की समग्र दृष्टि ___"आपके हृदयरूपी मंदिर में अगर श्रीमद् की प्रशमरस निमग्न, अमृतमयी मुद्रा प्रकट हुई हो, तो उसे वहीं स्थिर बनाइए। अपने चैतन्य का उसी स्वरूप में परिणमन ही साकार उपासना का साध्यबिंदु है, वही सत्यसुधा है । लक्ष्यमंदिर से सहस्त्रदल कमल में उसकी प्रतिष्ठा कर, वहीं लक्ष्यवेधी बाण की तरह चित्तवृत्ति प्रवाह का अनुसंधान बनाये रखना, यही पराभक्ति या प्रेमलक्षणा भक्ति है ।०००
"ऐसे भक्तात्मा का चिंतन एवं आचरण विशुद्ध हो सकता है, अतएव भक्ति, ज्ञान एवं साधना का त्रिवेणी संगम संभव होता है। ऐसे साधक को भक्ति-ज्ञान शून्य मात्र योग-साधना करनी आवश्यक नहीं । दृष्टि, विचार एवं आचारशुद्धि का नाम ही भक्ति, ज्ञान एवं योग है और यही अभेद 'सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्राणि मोक्षमार्ग' है । बिना पराभक्ति के ज्ञान एवं आचरण को विशुद्ध रखना दुर्लभ है। ०००" (प्र. से 'दक्षिणापथ की साधनायात्रा' : २९-३१) • ध्यान बल-स्वाध्याय बल
"ध्यान बल द्वारा समाधि स्थिति उत्पन्न होती है, और वही 'संवर समाधिगत उपाधि' सम्यक् चारित्र है, जिसका फल मोक्ष है । स्वाध्याय बल द्वारा ध्यानबल बढ़ता है । अतएव अहोरात्र (२४ घंटे) में ४ चार प्रहर स्वाध्याय और दो प्रहर ध्यान करने की आज्ञा उत्तराध्ययन में बतलाई है। जब जिस ध्यान में स्थिरता रह नहीं सके तब उस व्यक्ति के लिये स्वाध्याय आवश्यक है । यदि ध्यान टिका रहता हो तो उसे, उस काल में, स्वाध्याय आवश्यक नहीं है । व्याख्यान काल में 'स्वलक्ष से स्वाध्याय करता हूँ' ऐसा भाव समुत्पन्न कर कर्तव्य प्रस्तुत करने से अभिमान नहीं आता । श्रोता भले सुनें, हमें तो चाहिये कि हम अपने को ही उद्देशकर व्याख्यान करते रहें ।०००"
(मुनिश्री आनंदघनजी से : 'सहजानंदघन पत्रावली'-१४६) • धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ओर.....
"००० भूत-भविष्य की कल्पनाएँ त्याग कर केवल वर्तमान क्षण धर्मध्यान में ही बीते तो शक्लध्यान के प्रथम पाद में प्रवेश होकर आत्मसाक्षात्कार अवश्यमेव हो । अतः शेष सारी कल्पनाएँ हटा दें और आगे कच करें।"
(मुनिश्री आनंदघनजी से : 'सहजानंदघन पत्रावली'-१३३) • जप है ध्यान के भेदरूप में, अतः हितकर है।
"आपको वाचन-अध्ययन-से जप पर अधिक रूचि है वह हित रूप है, क्योंकि तत्त्वनिर्णय में दृढ़ता हेतु स्वाध्याय और तत्त्वानुभूति हेतु ध्यान ये साधन हैं । जप यह ध्यान के भेद रूप में है अतः उल्लसित रोमांकुर से उस में निमग्न बनें ।"
( मुनिश्री आनंदघनजी से : 'सहजानंदघन पत्रावली' : १२२).
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