________________
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
ऐसे प्रबुद्ध महामनुज श्री सहजानंदघनजी को जब किसी के द्वारा उनका नाम-ठाम परिचय पूछा गया, तब पता है उन्होंने आत्म-परिचय में अपना क्या नामादि बताये ?
"नाम सहजानंद मेरा नाम सहजानंद, अगम-देश-अलख-नगर-वासी में निर्द्वद...
नाम. १ सद्गुरु-गम-तात मेरे, स्वानुभूति मात, स्याद्वाद कुल है मेरा, सद्-विवेक भ्रात...
नाम.२ सम्यक्-दर्शन देव मेरे, गुरु है सम्यक् ज्ञान आत्म-स्थिरता धर्म मेरा, साधन स्वरुप-ध्यान... नाम. ३ समिति ही है प्रवृत्ति, गुप्ति ही आराम, शुद्ध चेतना-प्रिया सह, रमत हूँ निष्काम...
नाम. ४ परिचय यही अल्प मेरा, तन का तन से पूछ !
तन परिचय जड़ ही है सब, क्यों मरोड़े मूछ ?..." नाम. ५. इस 'अगम-देश अलख-नगर' के वासी अवधूत का एक अद्भुत प्रसंग बना । उत्तरापथ की उनकी एक यात्रा !
अपने आराध्य-श्रीमद् राजचन्द्रजी का आदेश कि, "मैं किसी गच्छ-मत में नहीं, आत्मा में हूँ" इसे शिरोधार्य कर वे बिना किसी धर्म-संप्रदाय का वेश धारण किये, अपने अल्प-से परिग्रह-एक चद्दर, एक लंगोटी, एक जलकमंडलादि लिये अपनी मस्तीभरी पदयात्रा में घूम रहे थे ।
घूमते घूमते वे पधारे तीर्थसिलिला गंगा के तट पर हरिद्वार ऋषिकेश । पहुँच गये निकट चल रहे एक विशाल-साधु समूह के सम्मेलन में अपनी सहज आभा धारण किये हुए और बैठ गये चुपचाप सभी के बीच में ।
सम्मेलन की कार्यवाही चली।
थोड़ी ही देर में मंचस्थ एक संन्यासी अध्यक्ष महावक्ता की दृष्टि इस चुपचाप बैठे अवधूत पर दौड़ गई।
उनकी सक्षम “खोजी" नज़र ने उसकी सहज प्रकाश बिखेर रही आभा और ओरा को पहचान लिया । सच्चे मुमुक्षु के नेत्र मुमुक्षु अवधूतों को पहचान लेते हैं । गाय हज़ारों पशुओं - गायों के बीच होते हुए भी बछड़ा अपनी माँ को खोज निकालता है । इस पारखी अध्यक्ष संन्यासी ने इस छिपे अवधूत को दूर से पहचान लिया - किसी भी पूर्व परिचय के बिना - वे तुरन्त ही बोल उठे
८. “सहजानंद सुधा" पृ. १२४
(36)