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। श्री सहजानंदघन गुरूगाथा ।
| प्रकरण-५ Chapter-5 स्वयंप्रज्ञ, स्वयंभद्र प्रतिमा के धारक सहजानंदघन भद्रमुनि
प्रा. प्रतापकुमार टोलिया परमगुरुओं के परमप्रज्ञा के पथ पर चलकर वे ही परा-प्रदेश में पहुँच पाते हैं जिन्होंने अशेष होकर, अपना सर्वस्व समर्पित कर, परम शरण ग्रहण किया हो।
परमप्रज्ञा के रत्नत्रयी पथ के ऐसे अनुपमयात्री इस काल में यदि कोई हो तो वे थे स्वयंप्रज्ञ, स्वयंभद्र प्रतिमा के धारक योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानंदघनजी, भद्रमुनिजी।।
बाह्य गिरिकंदराओं गह्वर-गुफाओं में निर्भय होकर एकाकी विचरकर, परमशरणसमर्पण कर, अंतस्तल की निगूढ़ गहराईयों में उतरकर, अंतस्गुफामें प्रवेश कर उन्होंने पा लिया था अपने भीतर ही लहराता हुआ वह परिशुद्ध चैतन्य का सागर, स्वात्मा का लोक, लोकालोकप्रकाशक अंतरालोक।
परा-प्रदेश का, कैवल्य का यह अंतरालोक, इस बाह्यसृष्टि में उनको रखते हुए भी, देहातीत महाविदेह की दशा और दिशा में अवस्थित किये रखता था ।
उनकी इस विरल योगसाधना ने, 'योग' से 'अ-योग' की ओर ले जानेवाली आत्मसाधनाने, उन्हें इस काल के एक अद्वितीय आत्मरत्न बना दिया था, परन्तु वे रहे सर्वथा निस्पृह, सर्वथा गुप्त, सर्वथा अ-प्रचारक स्वयं के । अतः उन्हें चंद सच्चे खोजी ही खोज पाये, जान पाये, समझ पाये। मोकलसर उत्तरापथ के अष्टापद कैलाश, पूर्वपथ के बिहार-उत्कल (पावापुरी-खंडगिरि-उदयगिरि) एवं दक्षिणापथ के कर्णाटक गोकाक एवं रत्नकूट की उपर्युक्त बाह्यगिरिकंदराएँ उन्हें जीवनभर अपने में बसाकर धन्य होती रहीं । मानों अतीत के अनगिनत निग्रंथ योगियों के आवासों के पश्चात् युगों से अनावासीय पड़ी हुईं ये गिरिकंदराएँ पुनः जीवित हो उठी थीं । कहाँ आता उनका ऐसा लाड़ला जोगी-सपूत उनकी खबर लेने इस पंचम कलिकाल में ?
सूनी पड़ी इन गुफा-कंदराओं ने अपने इस पावन सपूत को बहुत कुछ दिया, अपने गुप्त अनुभूतिभंडार खोल खोलकर दिया, उसे अंतस् संपदा से संपन्न, सराबोर कर दिया !
श्रीमद् सद्गुरु-कथनः" जहाँ सर्वोत्कृष्ट शुद्धि, वहाँ सर्वोत्कृष्ट सिद्धि !"
सिद्धसम्यगदृष्टि, योगसमाधि की अनुभूतिभरी अन्तर्दृष्टि-दिव्यदृष्टि और इससे उस पर सदा होती रही - जगजनों के लिये एक अजीब 'पहेली' सी - सौगन्धिक दिव्य वृष्टि। ___वर्तमान काल में कर्णाटक की कंदराओं के महाप्राण-ध्यानी युगप्रधान आचार्य भद्रबाहु की पावनरज से धूलि घूसरित ऐसी इस धरा पर पधारे हुए प्रायः अज्ञात ऐसे भद्रमुनि-सहजानंदघन समान दुसरे युगप्रधान महा-सपूत को जो खोजी थोड़े-से भी समझ पाये, पहचान पाये, उन्होंने अल्पांश में भी, इस गिरि-योगी की गुण-गरिमा को व्यक्त कर दिया । ऐसे एक दर्शक खोजी लिखते हैं :
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