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मुक्त रहकर निर्भय रूप से आराधन कर रहा है उन श्रीमद् राजचंद्रजी के असीम उपकार परंपरा की स्मृति हेतु उनका पवित्र नाम, अपने निमित्त से उत्पन्न हुए इस आश्रम के साथ जोड़ देने का साहस इस देहधारी ने किया है ।
उन ज्ञानावतार-अनुग्रह से पूर्वज्ञान-प्राप्ति
उन ज्ञानावतार की असीम कृपा से यह देहधारी निश्चयात्मक रूप से ऐसा जान सका है कि पूर्व के कुछ जन्मों में केवल पुरुषवेद से इस आत्मा का उन महान पवित्र आत्मा के साथ व्यवहार से निकट का सगाई सम्बन्ध और परमार्थ से धर्म सम्बन्ध घटित हुआ है। उनकी असीम कृपा से यह आत्मा पूर्व में अनेकबार व्यवहार से राजऋद्धियाँ और परमार्थ से महान तप-त्याग के फलस्वरूप लब्धिसिद्धियाँ अनुभव कर चुकी है ।
राजऋद्धियों से उद्भव होनेवाले अनर्थों से बचने हेतु पूर्वजन्म में आयुबंध काल में किये हुए संकल्प से यह देहधारी इस देह में एक खानदान किन्तु उपजीवन में साधारण स्थितिवाले कच्छी वीसा ओसवाल अंचलगच्छीय जैन कुटुम्ब में जन्मा है। स्तनपान करते करते वह जननी - मुख से श्रवण कर नवकार मंत्र सीखा । *
शिशु-किशोरवय चर्या और पूर्व-परिचित श्रीमद्-वचनामृत प्रभाव : जिस मंत्र के प्रताप से केवल २.५ वर्ष की आयु में वह स्वप्न अवस्था में संसारकूप का उल्लंघन
कर गया.....
• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
४ वर्ष की आयु में उसे खुले नेत्र से प्रकाश प्रकाश दिखाई दिया ७- १० वर्ष की आयु
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से वह पौषधोपवासव्रत पूर्वक सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने लगा...... १२ वर्ष की आयु में उसे श्रीमद् राजचंद्र वचनामृत ग्रंथ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसे पढ़ने पर वह शिक्षा पूर्व-परिचित प्रतीत हुई । उसमें से "बहु पुण्य केरा पुंजथी ... निरखीने नवयौवना.... क्षमापना पाठ” इत्यादि उसने सहसा कंठस्थ किए। "मैं कौन हूँ, कहाँ से हुआ ?" (हुं कोण छं, क्याथी थयो ? ) यह गाथा उसकी जीभ पर लगी खेलने एवं "निरखीने नव यौवना" - इस शिक्षाबल से लघुवय में संपन्न सगाईवाली कन्या का विवाहपूर्व ही देह छूट जाने पर, दूसरी कन्या के साथ हो रहे सगाई सम्बन्ध को टालकर वह आत्मसमाधि मार्ग पर अग्रसर हों सका; और १९ वर्ष की आयु में उसे मोहमयी नगर नें अनायास सहजसमाधि दशा का साक्षात्कार हुआ, जिसका वर्णन वह पहले कर चुका है ।
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देशावधिज्ञान-आत्मज्ञान-प्रदाता मुनिजीवन की
चंद अलौकिक, अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ
घोळां धावण केरी धाराए धाराए नीतर्यो नवकारनो रंग ।
हो राज ! मने लाग्यो जिनभक्तिनो रंग ॥
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वयमर्यादा के इक्कीसवें वर्ष में यह देहधारी जैन श्वेताम्बर साधु बना। उसके पश्चात् उसे अनेक अद्भुत अलौकिक अनुभव हुए। उनमें से चंद महत्त्वपूर्ण अनुभव, साहसिक साधकों को उत्साहित करने यहाँ प्रस्तुत किए जाते हैं :
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