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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा •
"इस देश की भाषागत उन्नति में भी जैन मुनि सहायक रहे हैं.... जैन मुनियों ने प्राकृत के अनेक रूपों का उपयोग किया और प्रत्येक काल एवं प्रत्येक क्षेत्र में जब जो भाषा चालू थी, जैनों ने उसी के माध्यम से अपना प्रचार किया । इस प्रकार प्राकृत के अनेक रूपों की उन्होंने सेवा की ०० जो भाषा प्रचलित थी उसमें जैनों का विशाल साहित्य है जिसे अपभ्रंश साहित्य कहते हैं । ००० जैन विद्वानों ने संस्कृत की भी काफी सेवा की । संस्कृत में भी जैनों के लिखे अनेक ग्रंथ हैं जिनमें से कुछ तो काव्य और वर्णन हैं तथा कुछ दर्शन के संबंध में । व्याकरण, छन्दशास्त्र, कोष और गणित पर भी संस्कृत में जैनाचार्यों के लिखे ग्रंथ मिलते हैं।
"मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण भी जैन संप्रदाय ने खूब किया । मैसूर के "श्रवण बेलगोळा" और "करकल" नामक स्थानों में गोमटेश्वर या बाहुबली की विशाल प्रतिमाएँ
१००० वर्ष पूर्व की चामुंडराय निर्मित एवं जैन आचार्य नेमिचन्द्र सिध्धान्त चक्रवर्ती प्रेरित श्रवण बेलगोळा गोमटेश्वर बाहुबली की विश्वभर में अनुपम जैन प्रतिमा एवं तत्पश्चात् के विजयनगर साम्राज्य तक के विविध जैन शिल्प + साहित्य का निर्माण जिनमें हेमकूट- हम्पी के ३२ जैन चैत्यालय भी समाविष्ट हैं - एक बात को बारबार, अनेक रूपों में स्पष्ट और सिद्ध करते हैं : कर्णाटक और दक्षिण भारत पर छाये हुए युगप्रधान अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के सर्वतोभद्र, कालजयी प्रभाव की । जैन शिल्प एवं स्थापत्य के मूर्धन्य ग्रंथ भी इस बात को प्रमाणों के आधार पर निर्विवाद रुप से सिद्ध करते हैं । २००० वर्ष पूर्व इस धरती पर हुए आचार्य भद्रबाहु के पदार्पण को और प्रभाव को ऐसा एक ग्रंथ प्रमाणित करता है :
"The Spread of Jainism in South India is attributed to a migration of the Jaina Community under the SRUTAKEVALI BHADRABAHU towards the close of the fourth century B.C. Digambara tradition avers that Bhadrabahu was accompanied by a king called Chandragupta (Prabhavchandra in the Sravanabelgola inscriptions from A.D. 600 onwards), who is believed to be the Maurya King of that name. The migration brought the Jainas, according, to this tradition, to Sravanabelgola in Karnataka and then to the Tamil country. The subsequent movement to the Tamil areas is believed to have been led by one Visakhacarya. The route of the migration would thus seem to be from North India (Malwa region) to Karnataka and from there to the Tamil country".4
तो जिन युगप्रधान श्रुतकेवली भद्रबाहु पर कर्णाटक एवं दक्षिण भारत में जैनधर्म प्रचार का इतना बड़ा श्रेय आधारित है, उस महापुरुष का स्वयं का साधना - जीवन कितना अप्रतिम, असाधारण रहा होगा !
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"संस्कृति के चार अध्याय" (पृ. १२६-१२७) "Jaina Art and Architecture" : Vol.I (Page 92)