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• श्री सहजानंदघन गुरूगाथा .
अब धर्मसंस्कार से जिनका ऋण शेष था, उन्हें वह खोजने लगा और खोज सका । वे थे खरतरगच्छीय श्री जिनरत्नसूरिजी महाराज आदि । चार महीनों का उनका परिचय साधकर वि.सं. १९९१ के वैशाख शुक्ला षष्ठी के पूर्वाह्न में महामहोत्सव से १२००० जनसंख्या की उपस्थिति में मुनिदीक्षा अंगीकार कर इस देहधारी को मुळजीभाई मिटाकर भद्रमुनि के नाम से घोषित किया गया ।
गुरुकुलवास में बसते हुए विनयोपासनापूर्वक साधु समाचारी, प्रचलित प्रकरणग्रंथ, संस्कृत-- प्राकृतादि व्याकरण, कोष, छंद, अलंकार, काव्य आदि ग्रंथ, जैन-अजैन न्यायग्रन्थ और दशवैकालिक आदि अल्पसूत्र कंठस्थ कर यह देहधारी गुरुगण में प्रीतिपात्र बना और सेवा के आदान-प्रदान पूर्वक दीक्षापर्याय के बारहवें वर्ष में धर्मऋण चुकाकर उऋण होकर आकाशवाणी के आदेश को आचार में कार्यान्वित करने वह गुफावासी, बना ।।
गुफावास के लिए सर्वप्रथम वह वि.सं. २००३ के पोष शुक्ला १४ और सोमवार के दिन मारवाड़ के मोकलसर गाँव निकटस्थ पहाड़ी गुफा में प्रविष्ट हुआ । गुफावास के पूर्व ही उसे सहसा श्वासानुसंधानपूर्वक प्रतिक्रमण आदि धार्मिक अनुष्ठान करते हुए अनहदध्वनि प्रकट हो चुकी थी, जिससे गुफा में मंत्रस्मरण के प्राण और वाणी इन दोनों स्टेज को पार कर उसके तीसरे स्टेज रस में वह प्रविष्ट हुआ । इस स्थिति में देहभान छूट जाकर उसकी सहजसमाधि में अवस्थिति होती थी । समयमर्यादा की सीमाबन्दी का वह उल्लंघन कर गया और सहजानंद खुमारी का अनुभव कर वह सहजानंदघन बना !
१२ माह पश्चात् उसने वहाँ से अन्यत्र प्रयाण किया ।
तत्पश्चात् क्रमशः अनेक देश-प्रदेश के अनेक गुफा-गह्वरों तथा एकान्त वनोपवनों में विचरण करते रहने पर उसे अनेक धर्म के त्यागी-तपस्वियों एवं सद्गृहस्थों का परिचय हुआ । उनमें से विशेष परिचय में आये हुए भावुकों ने स्वेच्छा से भक्तिभावनावश उन्हें संप्राप्त आध्यात्मिक अनुभव का लाभ अन्यों को दिलवाने हेतु, आश्रम पद्धति को उचित मानकर, अपने खर्च से आश्रम बांध देने की ओफर की; इतना ही नहीं, एक संन्यासी महात्मा तो अपने ही आश्रम को अर्पण करने हेतु तत्पर हुए । परंतु भीतर के आदेश के बिना उसने किसी का भी स्वीकार न किया।
(उक्त) प्रस्ताव रखनेवाले श्वे.दि. जैनों-अजैनों के नाम और स्थान निम्नानुसार हैं :१. जोधपुर स्टेट मोकलसर की पहाड़ी गुफा के निकटः वहाँ के कबीरपंथी शा. हंसराजजी
ललवाणी की ओर से २. मेवाड स्टेट चारभुजा रोड़ स्टेशन से १ मील दूर चंद्रभागा नदी तट पर विवर नामक
स्थान में शा. लालचंद कपरचंद कं. के भागीदार मलचंदजी की ओर से ३/६. मध्यप्रदेश (१) भोपाल से ६० मील दूर विन्ध्याचल पर्वत की गुफाओं में वाडीगाम
निवासी दि. जैनों की ओर से
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