Book Title: Sahajanandghan Guru Gatha
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 32
________________ • श्री सहजानंदघन गुरूगाथा • "विजयनगर साम्राज्य में जैनधर्म का स्थान"१। उसमें परोक्ष रुप से किंचित् मात्र संकेत करने के अतिरिक्त वे स्पष्ट रुप से, रत्नकूट, हंपी की इस धरती पर प्रथम पदार्पण करते समय कहते हैं : "जिसे तू चाह रहा था वह यही तुम्हारी पूर्व-परिचित योगभूमि !... "यहाँ हमारा मुनिसुव्रत भगवान के काल और निश्रा में विचरण हुआ था - "२ और उन्हें स्मृति एवं दिव्यदृष्टि में कर्नाटक-योगभूमि कर्नाटक के इस प्राचीन जैन तीर्थ की महती दिव्यता एवं महत्ता परिदर्शित हुई : "कर्णाटे विकट तरकटे, हेमकुटे च भोटे च । श्रीमत् तीर्थंकराणाम् प्रतिदिनं भावतोऽहम् नमामि -"३ (जिनवरभवनानाम् भावतोऽहं नमामि ।...) अन्यत्र श्री सहजानंदधनजी अपने महत्त्वपूर्ण आलेख 'उपास्यपदे उपादेयता' में भी इस भूमि का वर्णन प्रथम करते हुए कुछ संकेत देते हैं। फिर श्रीमद् राजचंद्रजी जैसे अपने उपकारक उपास्य के साथ के अपने पूर्वसम्बन्ध का और उनके पूर्वउपकार का भी कई स्थानों पर वे उल्लेख करते हैं - यथा श्रीमद्जी के जीवन और उनकी ज्ञानदशा-विषयक उनका श्रीमद् राजचंद्र शताब्दी समय का १९६७ का हम्पी में प्रस्तुत प्रवचन - "श्रीमद्जी की ज्ञानदशा" !५ ___ संक्षेप में कर्णाटक की, रत्नकूट हंपी की, गोकाक आदि की इस योगभूमि के साथ उनका पूर्व-सम्बन्ध अवश्य ही है यह संदेह से परे निर्विवाद वार्ता है। मुनिसुव्रत भगवान, तत्कालीन १४० जिनालय, फिर रामायणकालीन किष्किन्धा नगरी में भगवान राम, हनुमानजी, वाली, सुग्रीवादि विद्याधरों की भूमि विषयक भद्रमुनि द्वारा बारबार किया गया उल्लेख यह स्पष्ट करता है । परवर्तीकालीन विजयनगर की खंडहर सी धरती पर हंपी आने से पूर्व गोकाक की गुफा में (जो कि आचार्य श्री शान्तिसागरजी के समाधिमरण हेतु व्यवस्थित आरक्षित की गई थी) तीन वर्ष तक उनका मौनसाधना वास और जीवनांत में परमयोगान्तपूर्ण हंपी गुफा से महाविदेह प्रति महाप्रयाण - यह सब कर्णाटक में ही हुआ ! १. इसी लेख के आधार पर इस पंक्तिलेखक ने अंग्रेजी में "Role of Jainism in Vijaynagar Empire" : शोधपत्र, रत्नकूट हंपी आश्रम पर ही आयोजित History Association of India के परिसंवाद में प्रस्तुत किया, जो इसी ग्रंथ में आगे 'आत्मकथा-आश्रमकथा' एवं 'सिध्धभूमि का इतिहास' प्रकरण में भी यह विस्तार से, उनके ही शब्दों में दिया गया है। इस सम्बन्ध में, उनके मुनिसुव्रत भगवान के शिष्य होने के विषय में पू. माताजी एवं श्री भंवरलालजी नाहटा आदिने स्पष्ट आधार प्रदान किया है। सद्भक्त्यास्तोत्र । जिनभारती प्रकाशित । जिनभारती प्रकाशित । ३. सय (12)

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