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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
The soul, due to its ignorance, since eternity and incessantly, gets conditioned by passions like attachment and is thus the creator of those conditions and also the enjoyer of the fruits thereof.
10.
अन्वयार्थ - ( यदा) जिस समय (सर्वविवर्त्तोत्तीर्णं ) समस्त वैभाविक भावों से रहित होकर (सः) वह पुरुष (अचलं) निष्कम्प ( चैतन्यं ) चैतन्य - स्वरूप को (आप्नोति ) प्राप्त होता है, ( तदा) उस समय (सम्यक्पुरुषार्थसिद्धि) समीचीन पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि को ( आपन्नः ) पाता हुआ ( कृतकृत्यः ) कृतकृत्य (भवति) हो जाता है।
सर्वविवर्त्तेत्तीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति ।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः ॥ (11)
11.
When the soul, getting rid of all negative dispositions, establishes itself in immutable and pure consciousness, it accomplishes the ultimate goal and gets truly contented.
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जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ||
(12)
अन्वयार्थ
(जीवकृतं) जीव द्वारा किये गये ( परिणामं ) रागद्वेषादिक विभाव-भाव का ( निमित्तमात्रं ) निमित्तमात्र ( प्रपद्य) पाकर (पुनः) फिर (अन्ये पुद्गलाः ) जीव से भिन्न जो पुद्गल हैं वे (अत्र ) इस आत्मा में ( स्वयमेव ) अपने आप ही (कर्मभावेन) कर्मरूप से (परिणमन्ते) परिणमन करते हैं।