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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
contemplating on pure thoughts by listening to or making others listen to the scriptures and refraining from injury.
Jain, S.A., Reality, p. 203, 204.
भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत्किलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसायाः ॥
(158)
अन्वयार्थ - (अमीषाम् ) इन देशव्रती त्यागी पुरुषों के (भोगोपभोगहेतोः) भोग-उपभोग के कारण से ही (स्थावरहिंसा भवेत् किल) स्थावर हिंसा होती है ऐसा निश्चय है। (भोगोपभोगविरहात्) भोग-उपभोग का त्याग कर देने से (हिंसायाः लेशः अपि न भवति) हिंसा का लेशमात्र भी नहीं होता है।
158. Certainly, the use of consumable and non-consumable objects by a votary (with partial vows) results into himsā of immobile beings, but as he renounces the consumable and nonconsumable objects, not the slightest of himsā is occasioned.
वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहतः स्तेयम् । नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नाङ्गेप्यमूर्च्छस्य ॥
(159)
अन्वयार्थ - (वाग्गुप्तेः ) वचनगुप्ति पालने के कारण (अनृतं नास्ति) झूठ वचन नहीं है, (समस्तादानविरहतः) समस्त द्रव्य लेने का त्याग करने से (न स्तेयम्) चोरी नहीं है, (मैथुनमुचः) मैथुन छोड़ देने के कारण (न अब्रह्म) ब्रह्मचर्य भंग नहीं है, (अङ्गे अपि अमूर्च्छस्य ) शरीर में भी ममत्व भाव छोड़ देने से (सङ्गः न) परिग्रह नहीं है।
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