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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
कन्दर्पः कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् । असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पश्चेति ॥
(190)
अन्वयार्थ - ( कन्दर्पः ) हास्य सहित अश्लील वचन बोलना (कौत्कुच्यं) काय से कुचेष्टा करना ( भोगानर्थक्यम् अपि ) ओर प्रयोजन से अधिक भोगों का उपार्जन-ग्रहण करना ( च मौखर्यम् ) और लड़ाई-झगड़े वाले वचन बोलना (असमीक्षिताधिकरणं) बिना प्रयोजन मन-वचन-काय के व्यापार को बढ़ाना (इति तृतीयशीलस्य पञ्च ) इस प्रकार तीसरे शील के अनर्थदण्डव्रत के - ये पाँच अतिचार हैं।
190. Uttering obscene words, making inappropriate gestures, keeping surplus of consumables and non-consumables, garrulity, overindulgence in thoughtless activities, are the five transgressions of the vow of refraining from purposeless sin (anarthadaņdavrata).
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Five transgressions of the supplementary vow of refraining from purposeless sin (anarthadandavrata)
Āchārya Umasvami's Tattvārthsūtra:
कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥
130
(Ch. 7-32)
[कन्दर्प] राग से हास्यसहित अशिष्ट वचन बोला, [ कौत्कुच्यं] शरीर की कुचेष्टा करके अशिष्ट वचन बोलना, [मौखर्यं] धृष्टतापूर्वक जरूरत से ज्यादा बोलना, [असमीक्ष्याधिकरणं] बिना प्रयोजन मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना और [उपभोग-परिभोगानर्थक्यं ] भोग-उपभोग के पदार्थों का जरूरत से ज्यादा संग्रह करना - ये पाँच अनर्थदण्डव्रत के अतिचार हैं।