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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
इति रत्नत्रयमेतत् प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन । परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ॥
अन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार ( एतत् रत्नत्रयम् ) यह रत्नत्रय ( प्रतिसमयं ) हर समय (विकलम् अपि ) एकदेश रूप से भी ( निरत्ययां) अविनाशी (मुक्तिम् अभिलषिता ) मुक्ति को चाहने वाले ( गृहस्थेन ) गृहस्थ के द्वारा ( अनिशं ) निरन्तर (परिपालनीयम् ) पालन करने योग्य है।
(209)
209. The householder, desirous of eternal liberation, should constantly nurture the Three Jewels (ratnatrai of right faith, right knowledge, and right conduct), albeit partially.
बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य । पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ॥
(210)
अन्वयार्थ - (नित्यं बद्धोद्यमेन ) सदा प्रयन्तशील गृहस्थ के द्वारा ( बोधिलाभस्य समयं लब्ध्वा) रत्नत्रय की प्राप्ति का समय पाकर (च) और ( मुनीनां पदम् अवलम्ब्य ) मुनि के पद को धारण कर ( सपदि ) शीघ्र ही (परिपूर्णम् कर्तव्यं ) सम्पूर्ण करना चाहिये।
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210. This partial nurturing of the Three Jewels (ratnatrai of right faith, right knowledge, and right conduct) should be converted, with determined effort, into complete nurturing by stepping into the order of an ascetic, as soon as possible.