________________
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
(यत्) जो ( तस्मात् ) उस निजस्वरूप से (अविचलनं ) चलायमान नहीं होता है, ( स एव अयं ) वह ही इस (पुरुषार्थसिद्ध्युपायः ) पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि का उपाय है।
15. Knowing the true nature of the Self, he who leaves aside all inconsistent dispositions, and establishes himself firmly in the pure state, attains the ultimate object of the soul.
अनुसरतां पदमेतत्करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा । एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः ॥
अन्वयार्थ (एतत् ) इस (पदं) पद को ( अनुसरतां) अनुसरण करने वाले अर्थात् रत्नत्रय को प्राप्त हुये ( मुनीनाम् ) मुनियों की ( करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा ) पाप - मिश्रित आचार से सदा पराङ्मुख (एकान्तविरतिरूपा ) सर्वथा त्यागरूप ( अलौकिकी वृत्तिः भवति) लोक को अतिक्रम किये हुये वृत्ति होती है।
(16)
16. The ascetics who follow the true path mentioned above distance themselves away from all iniquitous activities, get engrossed in the Self, renouncing all worldly dispositions.
14
बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति । तस्यैकदेशविरतिः कथनीयाऽनेन बीजेन ॥
(17)
अन्वयार्थ - ( बहुशः ) अनेक बार ( प्रदर्शितां) दिखलायी गयी ( समस्तविरतिं ) सर्वथा त्यागरूप मुनियों की महावृत्ति को ( यः ) जो पुरुष ( जातु ) कदाचित् (न