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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय
यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥
अन्वयार्थ - ( यस्मात् ) क्योंकि ( आत्मा ) आत्मा ( सकषायः सन् ) कषायसहित होता हुआ (प्रथमम्) पहले (आत्मना ) अपने ही द्वारा ( आत्मानम् ) अपने आप को (हन्ति) मार डालता है, (पश्चात् ) पीछे ( प्राण्यन्तराणां ) दूसरे जीवों की (हिंसा ) हिंसा ( जायेत न वा ) हो अथवा नहीं हो।
The first victim of passions is self
(47)
47. It is due to the fact that under the influence of passions, the self first injures himself, later on, he may or may not cause injury to other living beings.
Acharya Pujyapada's Sarvarthasiddhi:
It has been said thus in the Scripture: "He who has passions causes injury to himself by himself. Whether injury is then caused to other living beings or not, it is immaterial." Jain, S.A., Reality, p. 197.
हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात् प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥
(48)
अन्वयार्थ - (हिंसायाम् ) हिंसा में ( अविरमण ) विरक्त न होना (अपि) तथा (हिंसापरिणमनम् ) हिंसा में परिणमन करना ( हिंसा भवति ) हिंसा कहलाती है ( तस्मात् ) इसलिए ( प्रमत्तयोगे ) प्रमाद योग में (नित्यम्) नियम से ( प्राणव्यपरोपणं ) प्राणों का घात होता है।
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