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पुरुषार्थसिद्धयुपाय अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥ (103)
अन्वयार्थ - (यः एते अर्था नाम) जितने भी धन धान्य आदि पदार्थ हैं (एते पुंसाम् बहिश्चराः प्राणा) ये पुरुषों के बाह्य-प्राण हैं। (यः जनः ) जो पुरुष ( यस्य अर्थान् हरति) जिसके धन धान्य आदि पदार्थों का हरण करता है (सः) वह (तस्य प्राणान् हरति ) उसके प्राणों का हरण करता है।
103. All possessions of men are their external vitalities. Anyone who deprives others of their possessions, therefore, causes destruction of vitalities.
हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुघट एव सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ॥
(104)
अन्वयार्थ - (हिंसायाः) हिंसा की (च) और (स्तेयस्य) चोरी की (न अव्याप्तिः) अव्याप्ति नहीं है (यस्मात् ) क्योंकि (अन्यैः स्वीकृतस्य द्रव्यस्य) दूसरों के द्वारा स्वीकार किये गये द्रव्य के (ग्रहणे) ग्रहण करने में (प्रमत्तयोगः) प्रमाद योग ( सुघट एव) अच्छी तरह घटता है इसलिये (सा) वहां हिंसा होती है।
104. There is no exclusivity between himsā and theft (wherever there is theft, there is himsā). When a person takes something that belongs to others, passion is the underlying cause and, therefore, hiņsā must take place.
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