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पुरुषार्थसिद्धयुपाय ऐसा करने से अर्थात् दिन में भोजन का त्याग और रात्रि में भोजन करने से (हिंसा नित्यं न भवति ) हिंसा सदैव नहीं होती है।
131. If that be so, one may renounce eating food during the daytime and eat during the night; this way himsā would not be committed at all times.
नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ । अन्नकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य॥
(132)
अन्वयार्थ - (एवं न) ऐसा नहीं है (हि) क्योंकि (वासरभुक्तेः ) दिन में भोजन करने की अपेक्षा (रजनिभुक्तौ) रात्रि में भोजन करने पर (रागः अधिकः भवति) राग अधिक होता है, (अन्नकवलस्य भुक्तेः) अन्न के ग्रास के खाने की अपेक्षा (मांसकवलस्य भुक्तौ इव) मांस के ग्रास के खाने में जैसे अधिक राग होता है।
132. No, it is not so. Just as there is stronger attachment in the eating of a morsel of flesh than in the eating of a morsel of grain, in the same way, certainly, there is more attachment in eating at night than in eating during the daytime.
अर्कालोकेन विना भुञानः परिहरेत् कथं हिंसाम् । अपि बोधितः प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजन्तूनाम् ॥
(133)
अन्वयार्थ - (अर्कालोकेन विना) सूर्य के प्रकाश के बिना रात्रि के अंधकार में (भुञ्जानः) भोजन करने वाला (प्रदीपे बोधितः अपि ) दीपक के जला लेने पर भी (भोज्यजुषां सूक्ष्मजन्तूनाम् ) भोजन में प्रीतिवश गिरने वाले सूक्ष्म जन्तुओं की
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