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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मार्थं हिंसने न दोषोऽस्ति । इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥ (79)
अन्वयार्थ - (भगवद्धर्मः सूक्ष्मः) ईश्वर का बताया हुआ धर्म सूक्ष्म है (धर्मार्थं हिंसने) धर्म के लिए हिंसा करने में (न दोषः अस्ति) दोष नहीं है (इति) इस प्रकार (धर्ममुग्धहृदयैः) धर्म में मूढबुद्धि रखने वाले हृदयसहित (भूत्वा) बनकर (जातु) कभी (शरीरिणः) प्राणी (न हिंस्याः ) नहीं मारने चाहिये।
79. “Dharma, as proclaimed by God, is very subtle and there is no wrong involved in committing himsā for the sake of dharma.” Not getting deluded by this wrong belief, one should desist from committing himsā of embodied beings.
धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् । इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्याः ॥ (80)
अन्वयार्थ - (हि) निश्चय करके (धर्मः) धर्म (देवताभ्यः) देवताओं से (प्रभवति) पैदा होता है इसलिये (ताभ्यः) उनके लिये (इह) इस लोक में (सर्वम् ) सब कुछ (प्रदेयम्) दे देना चाहिये (इति) इस प्रकार (दुर्विवेककलितां) अविवेकपूर्ण (धिषणां) बुद्धि को (प्राप्य) पा कर के ( देहिनः) प्राणी (न हिंस्याः) नहीं मारना चाहिये।
80. “Verily dharma is created by gods and, therefore, it is in order that everything is offered to them.” Falling prey to such indiscriminate notion, one should not kill embodied beings.
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