Book Title: Purushartha Siddhupaya
Author(s): Amrutchandracharya, Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 83
________________ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 97. Sinful (savadya) speech comprises statements which may be prompting others to engage in piercing, splitting, beating, ploughing, trading, or stealing, as such activities lead to the destruction of life. अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥ (98) अन्वयार्थ - ( अरतिकरं ) चित्त में आकुलता पैदा करने वाला एवं धैर्य को नष्ट करने वाला विद्वेषोत्पादक, ( भीतिकरं ) भय उत्पन्न करने वाला, (खेदकरं ) चित्त में खेद, पश्चात्ताप उत्पन्न करने वाला, (वैरशोककलहकरम् ) शत्रुता उत्पन्न करने वाला, शोक उत्पन्न करनेवाला, लड़ाई-झगड़ा उत्पन्न करनेवाला, ( यत् अपरम् अपि ) और जो भी ( परस्य) दूसरे को ( तापकरं ) सन्ताप-कष्ट देने वाला वचन है ( तत् सर्वम्) वह समस्त (अप्रियं ) अप्रिय - असुहावना-श्रवणकटु वचन (ज्ञेयम्) समझना चाहिये। 98. Unpleasant (apriya) speech comprises statements which may cause in others discomfiture, fear, regret, enmity, grief, hostility, or anguish. सर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् । अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति ॥ (99) अन्वयार्थ - ( अस्मिन् सर्वस्मिन् अपि ) इन समस्त ही निरूपण में (यत्) क्योंकि (प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं ) प्रमाद योग ही जिसमें कारण है ऐसा कथन होता है, (तस्मात् ) इसलिए (अनृतवचनेऽपि ) झूठ वचन में भी ( हिंसा नियतं ) हिंसा नियम से (समवतरति ) होती है। 65

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