Book Title: Purushartha Siddhupaya
Author(s): Amrutchandracharya, Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 61
________________ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय forest, only the Teachers, well versed in the application of partial standpoints or aspects of knowledge (nayas) can provide refuge. अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् । खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ॥ (59) अन्वयार्थ - ( अत्यन्तनिशितधारं) अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाला (दुरासदं) बड़ी कठिनता से मिलने वाला (जिनवरस्य नयचक्रम् ) जिनेन्द्रदेव का नयरूपी चक्र (धार्यमाणं) यदि धारण किया जाये तो वह (दुर्विदग्धानाम् ) अज्ञानी जीवों के (मूर्धानं ) मस्तक को (झटिति ) शीघ्र ही (खण्डयति ) खण्ड-खण्ड कर देता है। 59. Lord Jina's extremely sharp-edged chakra (spinning, disk-like super weapon with serrated edges) of manifold points of view, when used by misguided intellects, is difficult to be warded off and cuts off their heads in no time. अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥ (60) अन्वयार्थ - ( हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि ) हिंस्य कौन है, हिंसक कौन है, हिंसा क्या है, हिंसा का फल क्या है - इन चारों बातों को (तत्त्वेन) वास्तव रूप से (अवबुध्य ) समझ करके (नित्यम् अवगृहमानैः) सदा संवर करने में सावधान रहने वाले पुरुषों को (निजशक्त्या) अपनी शक्ति के अनुसार (हिंसा) हिंसा (त्यज्यतां) छोड़ना चाहिये। 60. After a proper understanding of what is meant by himsā - the victim of himsā, the perpetrator of himsā, the inference of 43

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