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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः । कात्स्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधं ॥
अन्वयार्थ - ( हिंसातः ) हिंसा से ( अनृतवचनात् ) असत्य वचन से ( स्तेयात्) चोरी से (अब्रह्मतः ) कुशील से ( परिग्रहत: ) परिग्रह से ( कात्स्न्यैकदेशविरतेः ) सर्व- देश विरति और एक देश विरति से ( चारित्रं ) चारित्र (द्विविधं ) दो प्रकार (जायते) होता है।
40. Depending on whether it is complete or partial abstinence from injury, falsehood, stealing, unchastity, and attachment, conduct is of two kinds.
(40)
41.
निरतः कार्त्स्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् । या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको भवति ॥
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अन्वयार्थ (कार्त्स्यनिवृत्तौ ) सर्वथा त्यागरूप चारित्र में (निरतः) लवलीन रहने वाले (अयं ) ये ( यतिः ) मुनि- महाराज (समयसारभूतः ) आत्मा के सारभूत - शुद्धोपयोग-स्वरूप में आचरण करने वाले (भवति) होते हैं, ( या तु ) यह जो ( एकदेशविरतिः) एकदेश रूप त्याग है ( तस्याम् ) उसमें (निरतः ) लवलीन रहने वाला ( उपासकः ) श्रावक (भवति) होता है।
(41)
Ascetics who establish themselves in pure and absolute consciousness observe complete abstinence. Those who practice the path of partial abstinence are called śrāvakas (the householders).