Book Title: Purushartha Siddhupaya
Author(s): Amrutchandracharya, Vijay K Jain
Publisher: Vikalp

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Page 49
________________ पुरुषार्थसिद्धयुपाय नहि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते । ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ॥ (38) अन्वयार्थ - (अज्ञानपूर्वकं) अज्ञान-पूर्वक (चरित्रम्) चारित्र (सम्यक्व्यपदेशं) सम्यक् भाव को - समीचीनता को (हि) निश्चय से (न लभते) नहीं प्राप्त होता है, (तस्मात् ) इसलिये (चारित्राराधनं) चारित्र का आराधन करना (ज्ञानानन्तरम् ) ज्ञान के पीछे ( उक्तं) कहा गया है। 38. Conduct based on ignorance can certainly not be termed "right". It is for this reason that adoration of conduct is preached to be proper subsequent to the attainment of right knowledge (samyagjñāna). चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ॥ (39) अन्वयार्थ - (यतः) कारण कि (समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् ) समस्त पापयुक्त योगों के दूर करने से (चारित्रं) चारित्र (भवति) होता है, (तत्) वह चारित्र (सकलकषायविमुक्तं) समस्त कषायों से रहित होता है, (विशदम्) निर्मल होता है, ( उदासीनम् ) राग-द्वेष रहित वीतराग होता है, (आत्मरूपं ) वह चारित्र आत्मा का निज स्वरूप है। 39. Right conduct (samyakchāritra) is achieved by abjuring all sinful activities of the body, the speech, and the mind. It is devoid of all passions, untainted, unattached to any alien substance, and very nature of the soul. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 31

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