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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥
(7)
अन्वयार्थ - (यथा) जिस प्रकार (अनवगीतसिंहस्य ) सिंह को नहीं जानने वाले पुरुष को ( माणवकः) बिल्ली (एवं) ही (सिंहः) सिंहस्वरूप (भवति) भासती है, (तथा) उसी प्रकार (अनिश्चयज्ञस्य) निश्चय नय के स्वरूप को नहीं जानने वाले पुरुष को (व्यवहार) व्यवहार नय (एव) ही (हि) अवश्य (निश्चयतां) निश्चय नयपने को (याति) प्राप्त होता है।
7. Just like for a man who has not known a lion, a cat symbolizes the lion, in the same way, a man not aware of the true nature of the transcendental point of view (niśchaya naya), considers only the empirical point of view (vyavahāra naya) as the ultimate truth (as revealed by the transcendental point of view).
व्यवहारनिश्चयो यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥
(8)
अन्वयार्थ - (यः) जो (तत्त्वेन) वास्तविक रूप से (व्यवहारनिश्चयो) व्यवहार नय और निश्चय नय दोनों नयों को (प्रबुध्य) जान कर (मध्यस्थः भवति) मध्यस्थ हो जाता है अर्थात् किसी एक नय का सर्वथा एकान्ती न बन कर अपेक्षादृष्टि से दोनों को स्वीकार करता है, ( स एव) वह ही (शिष्यः) उपदेश सुनने वाला (देशनायाः) उपदेश के (अविकलं) सम्पूर्ण (फलं) फल को ( प्राप्नोति) प्राप्त करता है।
8. The disciple who, after understanding the true nature of substances from both the transcendental as well as the empirical