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( २८ ) गाथा संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या २२३ अनिषिद्ध, असंयतो से अप्रार्थनीय, मूर्छा आदि की अनुत्पादक ऐसी उपाधि मुनियों द्वारा ग्रहण करने योग्य है।
५२२-२३ २२४ जब शरीर रूप परिग्रह से भी ममत्व का त्याग होता है तो अन्य उपाधि का विधान कैसे हो सकता है ?
५२३-२५ २२४१-६ स्त्रीमुक्ति का निषध, स्त्री के ग्यारह अंग का अध्ययन सम्भव है, कुल की
व्यवस्था के निमित्त आयिका के उपचार से महाव्रत २२४१० ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन कुल वाले दीक्षित हो सकते हैं २५४१११ शरीर अङ्ग भंग होने पर, अंडकोष या लिंग भंग होने पर, वात पीड़ित आदि
होने पर निग्रंथ साधु नहीं हो सकता यथाजात रूप, गुरु के बचन, सूत्रों के अध्ययन और विनय ये भी उपकरण हैं ५३४-३६ मुनि कषाय रहित, विषयाभिलाषा रहित, देव-पर्याय की इच्छा रहित होता है ५३६. ३८ पन्द्रह प्रमादों के नाम
५३८ २२७ भोजन की इच्छा से रहित एषणासमिति वाला अनाहारी है
५३६-४० शारीर को भी अपना नहीं मानने वाले, अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए उस शरीर को तप में लगा देते हैं
५४१-४२ २२३ युक्त-आहार का कथन, निश्चय अहिंसा व द्रव्य अहिंसा २२६/१-२ मांस के दूषण २२९/३ हाथ पर आया हुआ शुद्ध आहार मुनि को दूसरों को नहीं देना चाहिए।
उत्सर्ग और अपबाद की मैत्री द्वारा आचरण की सुस्थितता होती है शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन शरीर है सर्व परित्याग उपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र और शुद्धोपयोग इनका एकार्थ है एकदेश परित्याग अपहृतसंयम-सरागचारित्र, शुभोपयोग में एकार्थवाची है इसी को व्यवहारमय से मुनिधर्म कहते हैं
५४७-५० उत्पसर्ग और अपवाद के विरोध से आचरण की स्थिति नहीं होती
आगम अभ्यास मुख्य है २३२ एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवान के होती है पदार्थों का निपचय आमम द्वारा होता है अतः आगम अभ्यास मुख्य है
५५४-५७ २३३ आगम हीन श्रमण स्व पर को नहीं जानता
५४२-४५
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२३०